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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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दीप समान है। आत्मा दीपक समान स्वपर प्रकाशवान है। भगवान आत्मा दीपक है। चैतन्य-दीपक - चैतन्य प्रदीप। समझ में आया? दीपक के समान स्व-पर प्रकाशवान है। एक ही काल में यह आत्मा अपने को भी जानता है और सर्व द्रव्यों को. उनके गण-पर्यायों को भी जानता है। ऐसा प्रकाशवान चैतन्यसर्य है - ऐसा कहते हैं । दीपक के समान... स्वयं को जाने, समस्त अनन्त द्रव्य-गुण-पर्याय को और पर के अनन्त द्रव्य-गुण-पर्याय को भिन्न रहकर जाने, इसका नाम प्रकाश (है)। दीपक पर को जानते हुए पररूप नहीं होता; वैसे ही आत्मा स्व को जानते हुए स्वरूप से रहता हुआ, पर को जानते हुए पररूप नहीं होता – ऐसा दीपक-समान आत्मा स्व-पर प्रकाश का अस्तित्व तत्त्व है। कहो, समझ में आया? वास्तव में आत्मा दीपक के समान, पुण्य-पाप के राग, शरीर, वाणी, सबको प्रकाशित करनेवाला तत्त्व है। समझ में आया? रागादि और पर को उत्पन्न करनेवाला तत्त्व नहीं है। स्व-पर को प्रकाशित करे – ऐसा वह तत्त्व है। इसलिए उसे दीपक की उपमा दी है। समझ में आया?
जानता है, तथापि परज्ञेयों से भिन्न है। देखो इसमें लिखा है। जाने, दीपक पर को जाने, दिखलावे परन्तु कहीं पररूप होता है ? वैसे ही आत्मा पर को जाने, जानने से कहीं पररूप होता है ? शरीर को जाने, राग को जाने, कर्म को जाने, पुद्गल को जाने... जानते हुए दीपक के समान, जैसे दीपक पर को प्रकाशित करे तो दीपक अपने में रहकर पर को प्रकाशित करता है; पररूप नहीं होता। इसी प्रकार चैतन्यदीपक देह में भगवान आत्मा स्वयं को और पर को प्रकाशित करते हुए पररूप हुए बिना प्रकाशित करता है - ऐसा उसका स्वरूप है। कहो, समझ में आया?
यह आत्मा कभी न बुझे ऐसा अनुपम दीपक है। अन्य दीपक तो बुझ जाता है - ऐसा कहते हैं। दीपक तो बुझ जाता है, यह तो बुझता नहीं। शाश्वत् रत्न, शाश्वत् दीपक, अनादि-अनन्त है, इसका बुझना क्या? शाश्वत् चीज का नाश क्या? इस आत्मा दीपक को किसी तेल की आवश्यकता नहीं है। उस दीपक को तो तेल की आवश्यकता (पड़ती है) बत्ती की आवश्यकता (पड़ती है) (जबकि) यह तो तेल और बत्ती के बिना जलहल ज्योति भगवान प्रज्वलित है अन्दर। आहा...हा...! चैतन्य दीपक, जिसे तेल