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गाथा - ५७
समझ में आया ? भगवान आत्मा सम्यग्दर्शनरत्न जो पर्याय में है - ऐसा ही यह सम्यग्दर्शनरत्न त्रिकाल उसके स्वभाव में है । आत्मा ज्ञानस्वरूप है, उसमें सम्यग्दर्शनरत्न, सम्यग्ज्ञानरत्न और सम्यक् चारित्ररत्न इस ज्ञानस्वभाव में पड़े हैं और तीन रत्न द्वारा उसकी परीक्षा हो सकती है। समझ में आया ?
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मुमुक्षु - स्वभाव में पड़े हैं फिर भी किसी-किसी को ही मिले ऐसे हैं । उत्तर - जो साधन करे उसे मिले, ऐसा है। इसलिए किसी-किसी को कहा न ! वैसे तो अनन्त आत्माएँ पड़े हैं, अनन्तगुने हैं। पानेवाले को, समझनेवाले को उसकी कीमत करनेवाले को मिलते हैं। कीमत दे उसे मिलते हैं, कीमत दिये बिना मिलता होगा ? सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की कीमत भरे तो उसे रत्न मिलें और उन रत्नों द्वारा मुक्ति की, -पूर्ण की प्राप्ति होती है। कहो ! ऐसा रत्न भी इसे अनन्त काल से परखना नहीं आया। परखे माणिक मोती परखे हेम-कपूर; एक न परखा आत्मा वहाँ रहा दिग्मूढ़ ।
मूढ़..... समझ में आया ? सब की परीक्षा की - उसका यह और उसका यह और उसका यह.... आत्मा क्या चीज है ? उसकी परीक्षा नहीं की। सब लौकिक की बड़ी-बड़ी बातें की, यह... यह... यह... यह... रॉकेट ऐसे जाता है और अमुक ऐसे जाता है ।
मुमुक्षु - कितनों को आधीन करता है।
उत्तर - धूल में भी किसी को आधीन नहीं करता है। समझता नहीं । चैतन्यरत्न जानने का काम करे या उसे जानते हुए राग करे। करे क्या दूसरा यह ? ज्ञानस्वरूप हूँऐसा भान करे तो जानने का काम करे। ज्ञानस्वरूप है - ऐसा भान न हो तो सामने देखकर राग से देखे तो यह मेरा और मैंने किया ऐसा माने। दूसरा क्या करे ?
मुमुक्षु - इसके कारण तो सब मशीनें चलती हैं।
उत्तर - धूल में भी नहीं चलती। इसके कारण चलती है ? बिजली को आधीन की ऐसा कहता है । आकाश में से बिजली को आधीन की... गप्प ही गप्प मारता है, मूढ़ ! रत्न समान भगवान आत्मा की कीमत सम्यग्ज्ञानी, रत्न की कीमत करता है, कहते हैं। जिसकी नजर में कीमत है, वह नजर से उसे परखता है । आहा... हा...!
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