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________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) ३८९ रयण दीउ दिणयर दहिउ दुद्ध घीव पाहाणु। सुण्णउ रूउ फलिहउ अगिणि णव दिळंता जाणु॥५७॥ नौ दृष्टान्त दिये हैं। साधारण समझाया जाता है। आत्मा, रत्न-समान है। आत्मा, जैसे रत्न प्रकाशमय है, वैसे आत्मा ज्ञान प्रकाशमय है। जैसे रत्न नित्य और कायम रहनेवाला है, वैसे आत्मा ज्ञानस्वरूप से अविनाशी कायम रहनेवाला है। जैसे रत्न मूल्यवान चीज है, वैसे आत्मा भी अलौकिक अचिन्त्य सम्यग्ज्ञान से ख्याल में आवे - ऐसी कीमती चीज है। समझ में आया? __आत्मा, रत्न के समान एक अमूल्य द्रव्य है। जगत में आत्मा एक अमूल्य द्रव्य है। परम धन.... आत्मज्ञान रत्न के स्वामी सम्यग्दृष्टि झवेरी हैं। जैसे, झवेरी को रत्न की परीक्षा होती है, वैसे ही भगवान आत्मा चैतन्य निर्मलरत्न है, उसकी कीमत (परीक्षा) सम्यग्दृष्टिरूपी झवेरी को होती है। समझ में आया? कैसा भी रत्न हो परन्तु उसकी कीमत करनेवाला न हो तो उसकी कीमत इसके ख्याल में नहीं आती; वैसे (ही) भगवान आत्मा रत्न - समान शाश्वत् हैं । रत्न बहुत थोड़े मिलते हैं, बहुत टिकते हैं, प्रकाशमय है; इस कारण उनकी कीमत की जाती है। इसी तरह भगवान ज्ञानरत्न किसी को स्वभाव में प्राप्त हो, नित्य टिकाऊ है और उसकी कीमत अनन्त आनन्द दे – ऐसी उसकी कीमत है; इसलिए उसे रत्न की उपमा (दी है)। यहाँ ज्ञानस्वरूप भगवान को रत्न की उपमा (दी) है। समझ में आया? झवेरी, सम्यक्त्वी झवेरी उसे परखता है। इन राग-द्वेष, शरीर की क्रिया के द्वारा उसकी परीक्षा नहीं हो सकती। उसकी परीक्षा तो सम्यग्ज्ञान की प्रतीति द्वारा हो सकती है। ऐसा वह चैतन्य रत्न, रत्न की उपमा से उसका दृष्टान्त दिया है। तथा, तीन रत्न कहे है न? उन्हें प्राप्त करते हैं। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र – तीन रत्न कहलाते हैं। पर्याय, तो कहते हैं। सदा आत्मा ज्ञानज्योति से प्रकाशवान है, अविनाशी है, स्वयं सम्यग्दर्शन रत्नमय, सम्यग्ज्ञान रत्नमय और सम्यक्चारित्र रत्नमय.... स्वरूप ही ऐसा है – ऐसा कहते हैं। उसका स्थायी स्वरूप ही सम्यग्दर्शन रत्नस्वरूप है, सम्यग्ज्ञान रत्नस्वरूप है, सम्यक्चारित्र रत्नस्वरूप है। वस्तु, हाँ! वस्तु।
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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