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________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) ३८७ यहाँ तो कहते हैं सम्यग्दृष्टि बाह्य चारित्र को, द्वेष को, आचरण को, मोक्षमार्ग नहीं जानता, वही निश्चय आत्मा के अनुभव को मोक्षमार्ग जानता है। कहो, समझ में आया? निज-आत्मा में ही रहना, वह ज्ञानी का घर है।नीचे (लिखा) है। आत्मा का घर, निज-आत्मा में रहना, वह आत्मा का घर है। राग में रहना, वह आत्मा का घर नहीं है, बाहर का घर तो कहाँ आया? आहा...हा...! आत्मा की शिला वही ज्ञानी का आसन है। बाहर की शिला नहीं; उसका आसन अन्दर में है। समझ में आया? जिन आत्मिक तत्त्व ही ज्ञानी का वस्त्र है.... अपना ज्ञान वही अपना वस्त्र है। कारण कि ढंककर ऐसा का ऐसा पड़ा है। निज आत्मिकरस ही ज्ञानी का खान-पान है। आहार-पानी नहीं। यह प्रत्यक्ष वहाँ कहा अवश्य न? आहा...हा...! निज आत्मिक शैय्या ही ज्ञानी की शैय्या है।आत्मिक शैय्या ही ज्ञानी की शैय्या है। यह बाहर का सोने का था कब? आत्मा सोता कब है ? आहा...हा...! समझ में आया? ऐसे भगवान आत्मा को जो प्रत्यक्ष जानकर अनुभव नहीं करता, वह संसार से मुक्त नहीं होता। गुलाँट खाकर बात करे तो आत्मा को प्रत्यक्ष जानकर जो वेदन करता है, वह मुक्त होता है; इसके अतिरिक्त दूसरी कोई मुक्ति की क्रिया है नहीं। (श्रोता : प्रमाण वचन गुरुदेव!) सर्वज्ञ के प्रतिनिधि वीतरागी सन्त सन्त तो सर्वज्ञ के प्रतिनिधि हैं, वे जगत को सर्वज्ञ का सन्देश सुनाते हैं। अरे जीवों! प्रतीति तो करो कि तुम्हारे में ऐसा सर्वज्ञपद भरा है... । तुम जगत के पदार्थरहित ही स्वयं अपने स्वभाव से परिपूर्ण हो, मुझे अमुक वस्तु के बिना नहीं चलता - ऐसा तुमने पराधीनदृष्टि से माना है और इसी कारण पराश्रय से संसार में परिभ्रमण कर रहे हो। वस्तुतः तो तुम्हारा आत्मा पर के बिना ही अर्थात् पर के अभाव से ही, पर की नास्ति से ही स्वयं अपने से टिका हुआ है। प्रत्येक तत्त्व अपनी अस्ति से और पर की नास्ति से ही टिका हुआ है। - पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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