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गाथा-५६
मुक्त नहीं हो सकता। परपदार्थ के ध्यान से कहीं मुक्त होते हैं ? आहा...हा... ! वास्तव में आत्मानुभव ही मोक्षमार्ग है। सम्यग्दृष्टि बाह्यचारित्र को, वेष को, आचरण को मोक्षमार्ग नहीं जानता.... कोई-कोई सार-सार लेते हैं, वहाँ कहाँ सब क्या लेना? समझ में आया? भगवान आत्मा... आहा...! अरे... ! इसके गीत भी प्रीति से कभी सुने नहीं । हैं ? अध्यात्म की बात... आता है न? 'तत्प्रतिप्रीतिचित्तेन येन वार्तापि हि श्रुता।' भगवान आत्मा अकेला अनाकुल सहजानन्द सीधा आत्मा अपना स्वामी... स्वयं अपने को प्रत्यक्ष करने की ताकत-शक्तिवाला.... उसमें एक गुण ऐसा है। समझ में आया? अनादि एक प्रकाश नाम का गुण है, उसमें अनादि ऐसा गुण है कि जो प्रत्यक्ष होता है – ऐसा ही उसका गण है। परोक्ष रहे - ऐसा उसमें गण नहीं है। ऐसा गण है, उससे मक्ति होती है या उसके बिना भी मुक्ति होती है ? आहा...हा...! क्या कहा? ४७ शक्ति में एक बारहवीं शक्ति है, उस शक्ति का स्वभाव, आत्मा में गुण, उसका गुण प्रत्यक्ष होना है। पुण्य-पाप और राग से जानना, वह इसका गुण है नहीं। आहा...हा...! इस भगवान आत्मा में ऐसा एक गुण पड़ा है कि जो सीधा प्रत्यक्ष होकर जाने – ऐसा इसमें गुण है। है ?
मुमुक्षु - फिर गाड़ी आगे चले।
उत्तर – फिर आगे चले। यह सब गले तक यहाँ पड़ गये थे, हाँ! उसके प्रमुख के घर कहलाते हैं न?...घर । दोनों गाँव के कामदार' प्रमुख दोनों गहरे पड़ गये। यह फिर कौन जाने, कहाँ से निकल गये ! है ? कहो, समझ में आया इसमें? वे कहे अर...... ! यह 'कानजीस्वामी' कहाँ जायेंगे? हमारे 'आनन्दजी' कहते हैं, यह तो मुक्ति में जानेवाले हैं। इतने-इतने मन्दिर बनावे, इतने-इतने पाप करावे, कहाँ जाना होगा? तुम्हारा काका कहे – 'वीरचन्दभाई' हमारे 'आनन्दजी' हैं न? जवाब देने में होशियार है। पता नहीं तुम्हें कि मोक्ष जानेवाले हैं ! सुन न ! बाहर का मन्दिर होना और अमुक होना, उसमें आत्मा को क्या? वह तो हुआ, उसमें कहाँ पाप था? वह तो जरा शुभभाव होता है । वह शुभभाव होता है, उसे देखता नहीं और वह पाप हुआ, उसे देखता है। समझ में आया?
मुमुक्षु - स्थावर की हिंसा होती है, इस अपेक्षा से कहते हैं। उत्तर - .......कहाँ था आत्मा में? हिंसा कौन कर सकता है ? आहा...हा...!