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________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) ३८५ में अतीन्द्रिय आनन्द का बारम्बार स्पर्श होना, अतीन्द्रिय आनन्द का स्पर्श होना; प्रत्यक्ष ज्ञान और फिर अतीन्द्रिय आनन्द का विशेष वेदन, वह जिसे नहीं, वीतराग कहते हैं कि वह संसार से छूटता नहीं है। आहा...हा...! कठिन बात भाई! । वे तो ऐसा कहते हैं यह निश्चय... निश्चय... एकान्त... एकान्त (कहते हैं)।सुन न, भगवान! यह तेरा एकान्त स्व प्राप्त करने का यह उपाय है। दूसरा उपाय नहीं है भाई! तझे लगता है कि यह परोक्ष ज्ञान और यह परज्ञान. बाहर का व्यवहार (इससे) आत्मा के आनन्द के अनुभव के बिना तुझे कल्याण और संवर-निर्जरा हो जाये – ऐसा है नहीं। इसका नाम एकान्त मिथ्यात्व है। समझ में आया? स्व-संवेदन ज्ञान बिना संवर-निर्जरा नहीं है और तू ऐसा माने कि इनके बिना, शास्त्र के पठन से संवर-निर्जरा (होते हैं)। यह तेरी एकान्त मान्यता है । अनुभव के बिना निर्जरा की उग्रता नहीं है और तू कहता है कि यह उपवास कुछ करें और यह भगवान के दर्शन से निर्जरा हो (यह तेरी एकान्त) मिथ्यात्व की मान्यता है – ऐसा कहते हैं। आहा...हा...! समझ में आया? मुमुक्षु – ऐसा मँहगा, कितना ही खर्च करे तो भी नहीं मिले। उत्तर - अन्य तो पच्चीस गुना भाव खर्च करे तो भी मँहगाई में मिलता है, कहते हैं परन्तु यह मँहगाई कैसी? ठीक, निकालते हैं न? यह तो ऐसी सस्ताई है कि किसी की आवश्यकता नहीं पड़ती – ऐसी यह सस्ताई है। आहा...हा...! कहो! उसमें तो पैसा चाहिए लेने जाना पडे. वह फिर कछ दे न दे. उस समय फर्सत में हो. न हो। इसमें तो किसी की जरूरत नहीं पड़ती। आहा...हा....! है? आहा...हा...! भगवान आत्मा ऐसा का ऐसा परमात्मस्वरूप विराजमान है, उसका अन्तरध्यान-एकाग्र करना वह तेरे समीप में है, कहीं बाहर से आवे ऐसा नहीं है। आहा...हा...! कठिन परन्तु लोगों को.... अपनी जाति को जानना, उसमें इसे मँहगा लगता है! श्री जिनेन्द्र भगवान ने दिव्यध्वनि से यही उपदेश दिया है कि अपने आत्मा के श्रद्धान-ज्ञान-ध्यान.... देखो! अर्थात् निश्चयरत्नत्रयस्वरूप स्वात्मानुभव ही ऐसा मसाला है कि जिसके प्रयोग से वीतरागता की अग्नि भड़कती होती है और वह कर्मरूप ईंधन को जला डालती है। आत्मज्ञान के बिना कोई कभी कर्मों से
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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