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________________ ३८१ योगसार प्रवचन (भाग-१) ५६ । आत्मानुभवी ही संसार से मुक्त होता है। जेणवि मण्णहिंजीव फुडु से णवि जीउ मुणंति। ते जिण-णाहहँ उत्तिया णउ संसार मुंचंति॥५६॥ जो भगवान आत्मा.... जो स्पष्टरूप से आत्मा को नहीं जानता.... स्पष्ट अर्थात् प्रत्यक्ष समझ में आया। ‘णवि-मण्णहिं जीव फुडु' आत्मा विकल्परहित, मन के संगरहित सीधे आत्मा अपने को ज्ञात हो... ऐसे आत्मा को प्रत्यक्षरूप से कोई नहीं जानता। समझ में आया? और जो अपने आत्मा को अनुभव नहीं करता.... जानना और अनुभव करना, दोनों साथ लिये हैं। प्रत्यक्ष नहीं जानता.... दो शब्द अलग किये हैं न? एक तो प्रत्यक्ष नहीं जानता; उसमें वजन यह दिया कि राग और मन रहित आत्मा को सीधे जानने का नाम आत्मा का जानना कहलाता है। समझ में आया? ऐसे दो बोल (कहे हैं)। 'जे णवि-मण्णहिं जीव फुडु जे णवि जीउ मुणंति' भगवान आत्मा... ! यहाँ तो अकेले आत्मा के ही गीत हैं। योगसार! भगवान पूर्णानन्द प्रभु के अन्दर में एकाकार हो, वही योगसार है; बाकी कुछ सार-फार है नहीं। क्या कहते हैं ? जो कोई जीव अपने आत्मा को स्पष्टरूप से अपने आत्मा को नहीं जानता.... एक बात। परोक्ष से जानना कि यह आत्मा है, यह आत्मा (है) वह आत्मा नहीं। प्रत्येक गाथा में भाव बदलते हैं, हाँ! बात तो ऐसी की ऐसी लगती है परन्तु बदलते हैं। भगवान आत्मा स्वानुभूत्या चकासते'। एक ज्ञान की लहर से जागता भगवान स्वयं अपने को प्रत्यक्ष न जाने, उसे कहते हैं कि, उसे हम ज्ञान नहीं कहते। आहा...हा... ! ऐसा यहाँ कहते हैं। मुमुक्षु – एक विकल्प से जाने और.... उत्तर – विकल्प से जाने, वह ज्ञान ही नहीं, वह ज्ञान ही नहीं है। प्रत्यक्ष जाने, उसे ज्ञान कहते हैं - यहाँ ऐसा सिद्ध करना है। विकल्प से जानना, वह जानना नहीं है। जमूभाई ! सब बात ऐसी है। मुमुक्षु - व्यवहार से जाना कहलाता है?
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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