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गाथा-५५
किसके लड़के? उसका आवेग हो जाता है। यह लक्ष्मी इतनी कहलाती है, दो करोड़ -पाँच करोड़ यह किसकी? मेरी।
मुमुक्षु - तो लक्ष्मी इसकी होगी या नहीं?
उत्तर - धूल में भी इसकी नहीं है। इसकी होवे तो इसके आत्मा में घुस जाना चाहिए। समझ में आया? हैं?
मुमुक्षु - तिजोरी में पड़े होते हैं।
उत्तर – तिजोरी में (होवे) परन्तु... तिजोरी, तिजोरी की स्वामी है, परमाणु परमाणु का स्वामी है। यह कहाँ से लाया उसमें ? देखो!
उसके ही स्वामीपने में सन्तुष्ट हो जाता है.... आहा...हा...! भगवान आत्मा अपना अभेद, अखण्ड, आनन्दस्वरूप का वेदन-अनुभव करने पर उसमें सन्तोषपना समाहित हो जाता है। उसके स्वामीपने में ही सन्तोष है। राग और पर के स्वामीपने में तो दु:खदायक अधिक भ्रम है। समझ में आया? (फिर) समयसार का दृष्टान्त दिया है।
आत्मानुभवी ही संसार से मुक्त होता है जे णवि मण्णहिं जीव फुडु से णवि जीउ मुणंति। ते जिण-णाहहँ उत्तिया णउ संसार मुंचंति॥५६॥
स्पष्ट न माने जीव को, अरु नहिं जानत जीव।
छूटे नहिं संसार से, भावे जिन जी अतीव॥ अन्वयार्थ – (जे फुडु जीव णवि मण्णहिं) जो स्पष्टरूप से अपने आत्मा को नहीं जानते हैं (जे जीउ णवि मणंति ) व जो अपने आत्मा का अनुभव नहीं करते हैं (ते संसार णउ मुंचुति) वे संसार से मुक्त नहीं होते (जिण णाहहं उत्तिया) ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है।