SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 379
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) ३७९ होता है परन्तु इस भाव की मर्यादा को ऐसा टाँके कि यह भाव आया, इसलिए अब इसे आत्मा का अनुभव और धर्म होगा - ऐसा नहीं है। इसी प्रकार इस बात को अत्यन्त उड़ा ही दे; अशुभभाव से बचने के लिए - ऐसा भक्ति का, पूजा का, दया का, दान का, यात्रा का भाव होता है, उसे उड़ा दे तो वह तत्त्व को नहीं समझता। समझ में आया? । मैं समस्त व्यवहार की रचना से निराला एक परम शुद्ध आत्मा हूँ। लो! ज्ञायक एक प्रकाशवान परम निराकुल, परम वीतरागी, अखण्ड द्रव्य हूँ। ठीक कहा है। अर्थ ठीक करते हैं। समझ में आया? इस प्रकार मनन करके जो अपने आत्मारूपी रत्न का ग्रहण करके.... भगवान आत्मा अपने स्वरूप का रत्न – चैतन्यरत्न - उसके अन्तर में एकाग्र होकर चैतन्य को ग्रहण करता है। उसके ही स्वामीपने में सन्तुष्ट हो जाता है। धर्मी तो अपने सहजात्मस्वरूप का स्वामी (होता है)। यह आत्मा शरीर, वाणी, मन का तो मालिक नहीं परन्तु दया, दान के विकल्प का मालिक भी आत्मा नहीं है। आहा...हा...! सहजात्मशुद्ध चैतन्यपिण्ड प्रभु, उसका यह आत्मा सहजानन्द का स्वामी है। समझ में आया? और अपने स्वरूप के-सहजानन्द के स्वामी में ही धर्मी को सन्तोष दिखता है। यह (अज्ञानी पर का) स्वामी हुआ – मकान का, मालिक का, अमुक का, इतनी स्त्रियाँ, इतने लड़के, इतनी इज्जत, इतनी कीर्ति, इतने मकान, यह इतने-इतने शुभभाव किये, उनका स्वामी होता है तो कहते हैं कि वह स्वयं असन्तोष में घिर गया है। आहा...हा... ! उसे सन्तोष नहीं होता । सन्तोष तो धर्मात्मा को अपने शुद्धस्वरूप की श्रद्धा -ज्ञान में सन्तोष है। अपना सहज स्वाभाविक आत्मा की पूँजी, आत्मा की पूँजी अनन्त गणरूप का स्वामी होने से सन्तोष मानता है। शिष्यों का स्वामी हो - हमारे इतने शिष्य, इतनी हमारी चेलियाँ... समझ में आया? हमने इतनी पुस्तकें बनायीं, इसके - अमुक के हम स्वामी... कितनी पाठशालाओं के हम स्वामी, उन सबके अधिपति हैं, प्रत्येक में होता है न....? क्या कहलाते हैं उसके ? प्रमुख, अध्यक्ष... अमुक के (ट्रस्टी हैं,) अमुक के अध्यक्ष हैं, यह सब पर का स्वामीपना मानना यह तो मूढ़ता है। वहाँ कहाँ पर में तेरा स्वामीपना था? समझ में आया? कितनों को ऐसा होता है।
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy