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योगसार प्रवचन (भाग-१) से (या) शत्रुजय की लाख यात्रा करे, करोड़ करे सम्मेदशिखर की, उसमें से आत्मा प्राप्त हो ऐसा नहीं है। कहो, जगजीवनभाई ! क्या होगा?
कहते हैं कि राग का फैलाव दूर कर । लो! देखो, आत्मा के स्वभाव में एकाग्र होने पर आत्मा की शान्ति का विस्तार होता है। राग का विस्तार घटे और अराग का विस्तार होता है। आहा...हा...! शुभराग का भी विस्तार घटता है – यहाँ तो ऐसा कहते हैं । समझ में आया? आनन्दमूर्ति प्रभु आत्मा है। नित्यानन्द आत्मा अन्दर है, उस नित्यानन्द में - आनन्द में एकाग्र होने पर आनन्द का फैलाव होता है। राग का विस्तार घटता है, यह वस्तु कर्तव्य है। आहा...हा...! समझ में आया? तब यह आत्मज्ञान सहज ही उत्पन्न हो जाता है।
शास्त्र के रहस्य को जाननेवाले, जो व्यवहार-निश्चयनय से अथवा द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिकनय से छह द्रव्यों का स्वरूप भले प्रकार.... जानकर आत्मा की ओर उपयोग लगाना चाहिए। आत्माधीन निश्चयचारित्र के लाभ के लिए उपयोग को ( उन्हें) मन और इन्द्रियों की तरफ जाने से रोकना चाहिए।लो! इन्द्रियों के विषयों की तृष्णा मिटाना चाहिए.... इत्यादि-इत्यादि बहुत बात है। पूछताछ करने की क्या आवश्यकता है? इत्यादि इन्होंने डाला है। वास्तव में जिसे अनुभव करना है, वह स्वयं ही है। क्या कहते हैं ? अनुभव-आत्मा का धर्म करनेवाला तो स्वयं ही है। अनुभव करनेवाला आत्मा है। आत्मा स्वयं है, उसे पर के पास से कहाँ कुछ लेना है ? समझ में आया? स्वयं ही अनुभव करनेवाला और स्वयं ही अनुभव का आनन्द लेनेवाला है। उसमें पर को पूछकर कहाँ अन्दर में मिले ऐसा है? आहा...हा...! बहु पूछे बात, हाँ! साधारण बात जानने की जरूरत है – ऐसा कहते हैं। वास्तव में जिसे अनुभव करना है, वह स्वयं ही है।
आत्मा के आनन्द की गाढ़ श्रद्धा सर्व आत्मा अथवा परपदार्थ के आश्रित सुख के प्रति वैराग्य उत्पन्न कर देती है। लो! यह आत्मा की श्रद्धा कि मैं आनन्द हूँ, इस श्रद्धा से आत्मा को पर-शरीरादि में आनन्द है, इस बुद्धि का नाश हो जाता है। आत्मा में गाढ़ श्रद्धा होने पर आत्मा आनन्द और अनाकुल शान्त और शान्ति का पर्वत स्वयं है,