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________________ ३७६ गाथा-५५ ऐसे भगवान आत्मा की गाढ़ प्रतीति होने पर आत्मा के अतिरिक्त दूसरे आत्मा और दूसरे पुद्गल में सुखबुद्धि का नाश हो जाता है। कहो, समझ में आया? दूसरे पुद्गल शब्द से यह पैसा-धूल, स्त्री, पुत्र इस धूल में कहीं सुख है नहीं। समझ में आया? यह ५४ (गाथा पूरी) हुई। पुद्गल व जगत् के व्यवहार से आत्मा को भिन्न जाने पुग्गल अण्णु जिअण्णु जिउ अण्णु जि सहु ववहारू। चयहि वि पुग्गल गहहि जिउ लहु पावहि भवपारू॥५५॥ जीव पुद्गल दोऊ भिन्न है, भिन्न सकल व्यवहार। तज पुद्गल ग्रह जीव तो, शीघ्र लहे भवपार॥ अन्वयार्थ - (पुग्गलु अण्णु जि) पुद्गल मूर्तिक का स्वभाव जीव से अन्य है (जिउ अण्णु) जीव का स्वभाव पुद्गलादि से न्यारा है (सहु ववहारू अण्णु जि) तथा और सब जगत् का व्यवहार प्रपंच भी अपने आत्मा से न्यारा है ( पुग्गलु चयहि वि जिउ गहहि) पुद्गलादि को त्यागकर यदि अपने आत्मा को निराला ग्रहण करे (लहु भवपारू पावहि) तो शीघ्र ही संसार से पार हो जावे। पुग्गल अण्णु जिअण्णु जिउ अण्णु जि सहु ववहारू। चयहि वि पुग्गल गहहि जिउ लहु पावहि भवपारू॥५५॥ ५५, संसार से पार होने का उपाय – एक आत्मा का ज्ञान है । 'पुग्गल अण्णु' यह शरीर, कर्म आदि अन्य है। असद्भूत व्यवहार का विषय जो कर्म, पुद्गल वे सब अन्य हैं। 'अण्णु जि सहु ववहारु' बहुत संक्षिप्त डाला है । अशुद्ध निश्चय से उत्पन्न होते, ऐसे पुण्य-पाप, राग-द्वेष के भाव भी व्यवहार हैं। वह व्यवहार भी आत्मा के स्वभाव से अन्य है। समझ में आया? इन्होंने आगे थोड़ा डाला है, हाँ!
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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