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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
५४ । इन्द्रिय व मन के निरोध से सहज ही आत्मानुभव ।
मणु- इंदिहि विछोडियउ बहु पुच्छियइ ण कोई । रायहँ पसरू णिवारियइ सहज उपज्जइ सोई ॥ ५४ ॥
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मन, इन्द्रिय को दूर कर । आता है न ? है न इसमें ? यह संक्षिप्त में संक्षिप्त बात... भगवान आत्मा अखण्डानन्द प्रभु है, उसे मन और इन्द्रिय से दूर कर और अनुभव कर यह करने का है। क्या बहुत पूछे बात ? बहुत बड़ी-बड़ी बातें पूछे और यह करे और वह करे... परन्तु यह सार तो निकालता नहीं । कहो, समझ में आया ? क्या बहुत पूछे बात ? ऐसा आया या नहीं अन्दर ? है ? पूरे दिन पूछना - पूछना, पूछा पूछ, पूछा पूछ (करता है) परन्तु पूछ कर करना क्या है ? है ?
स्पष्ट होता है।
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मुमुक्षु
उत्तर क्या स्पष्ट होता है। करने का तो यह है, यह स्पष्ट क्या हुआ ?
यहाँ पाठ है न? 'बहु पुच्छियइ ण कोइ' बहुत पूछताछ करता है, पूरे दिन कि इसका ऐसा है और उसका ऐसा है और इसका ऐसा है और उसका ऐसा है .... इसलिए यह सम्यग्दर्शन हो गया ? और सम्यग्ज्ञान उसके कारण निर्मल हो गया ? ऐसा नहीं । देवानुप्रिया ! 'रायहँ पसरु णिवारियइ' देखो! कहते हैं, तीन बात की। भगवान आत्मा पूर्णानन्द का नाथ प्रभु, उसे मन और इन्द्रिय से हटाकर और राग दूर करके अन्तर में एकाकार होना, यह मोक्ष के लिए करने योग्य है । मन और इन्द्रिय से हटाकर, अन्दर जाना और राग को दूर करके वीतराग दृष्टि करना । आहा... हा...! धमाल (के कारण ) यह भी सूझे ऐसा नहीं । यह शत्रुंजय की यात्रा और हो... हो... हो... हो... जयचन्दभाई ! बड़ी धर्मशालाएँ, दस-दस हजार लोग आवें... आहा...हा... ! धर्म... धर्म... धर्म... मानो धर्म वहाँ लुटता होगा ! धर्म कहाँ है ? समझ में आया ? यह तो जरा राग की मन्दता होवे तो शुभभाव होता है। भक्ति और यात्रा में धर्म-वर्म है नहीं । आहा... हा... !
मुमुक्षु
- कोई यात्रा करेगा नहीं ।
उत्तर - कौन करता है ? भाव आये बिना रहेगा नहीं, आयेगा तब । अभी कहते थे