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गाथा-५३
वे आत्मज्ञान का प्रकाश पाये बिना अज्ञान के अन्धकार में ही जीवन गँवाकर मनुष्य जन्म का फल प्राप्त नहीं करते। अज्ञान में.... शास्त्र पढ़े, बड़प्पन लेकर वाद-विवाद (किया) परन्तु भगवान आत्मा अतीन्द्रिय आनन्द का स्वरूप है, उसे अन्तर सम्यग्दर्शन द्वारा, निश्चय द्वारा अनुभव न करे तो उसकी सम्पूर्ण जिन्दगी अफल जाती है। धूल भी नहीं... दुनिया लाखों माने या न माने, उसके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। आहा...हा...! समझ में आया?
मुमुक्षु - बहुत लोग माने तो अधिक अच्छा। उत्तर – उसके साथ क्या काम है? माने या न माने, उसके घर रहा। समझ में आया?
शास्त्रों का ज्ञान उनके लिए संसार बढ़ानेवाला बन जाता है। भाषा देखो! आत्मा अखण्ड आनन्दकन्द की दृष्टि के अनुभव बिना उसे शास्त्र का ज्ञान संसार वृद्धि का कारण होता है । जहाँ-तहाँ हमें आता है, उसे नहीं आता, हम ऐसा सीखे... समझ में आया? इसे अपनी बढ़ाई के आगे दूसरे की महत्ता नहीं सूझती। समझ में आया? निर्वाणमार्ग से उन्हें दूर ले जाता है। लो! समझ में आया? यह ५३ (गाथा पूरी) हुई।
इन्द्रिय व मन के निरोध से सहज ही आत्मानुभव मणु-इंदिहि वि छोडियउ बहु पुच्छियइ ण कोई। रायहँ पसरू णिवारियइ सहज उपज्जइ सोई॥५४॥
मन इन्द्रिय से दूर हट, क्यों पूछत बहु बात।
राग प्रसार निवार कर, सहज स्वरूप उत्पाद॥ अन्वयार्थ – (बहु मणु इंदिहि वि छोडियइ) यदि बुद्धिमान मन व इन्द्रियों से छुटकारा पा जावे (कोइ ण पुच्छियइ) तब किसी से कुछ पूछने की जरूरत नहीं है (रायहँ पसरू णिवारियइ) जब राग का फैलाना दूर कर दिया जाता है (सहज सोइ उपज्जइ) तब यह आत्मज्ञान सहज ही पैदा हो जाता है।