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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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यह सब पढ़कर सम्यग्दर्शन का लाभ चाहिए। उसे नहीं पाया तो शास्त्र पढ़ना कार्यकारी नहीं है। शास्त्र पढ़कर क्या (किया)? वाद-विवाद किया, दूसरे को समझाया और दूसरों से बहुत बातें धारण की, परन्तु जो करने का था, वह तो किया नहीं।
अनेक जीव, व्यवहार शास्त्र में कुशल होकर विद्या का मद करके उन्मत्त हो जाते हैं.... व्यवहार शास्त्र में बाह्य में कुशल (होवे, वह) मद करता है, मद। हम पढ़े हैं, हमें आता है। समझ में आया? उसे कुछ नहीं आता; उसे समझाना नहीं आता, बोलते नहीं आता और (कहता है कि) हमें तो सब आता है। कहो, निहालभाई! आहा...हा...!
मुमुक्षु - आता होवे तो....
उत्तर – क्या आता होवे तो? धूल कहलाये? इसे आना कहते हैं ? यह आना है ही नहीं। आत्मा का अन्तर निर्विकल्प श्रद्धा और वेदन करना, वह 'आना' है। समझ में आया? हजारों लोगों को समझाना या लोगों से बातें धारण करना, यह कहीं तात्विक बात नहीं है। भगवान आत्मा अन्तर आनन्दकन्द सच्चिदानन्दमूर्ति है, उसका अन्तर में वेदन करके, निर्विकल्प आत्मा का स्वाद लेना, अनुभव करना – यह पूरा फल है। यह किया, उसने सब किया। समझ में आया? यह किया नहीं, उसने कुछ किया नहीं।
उन्मत्त हो जाता है, कषाय की मलिनता बढ़ा देता है। देखो, बढ़ा देता है। कषाय अभिमान बढ़े, मुझे आता है, देखो, इसे नहीं आता। देखो! इसे आया, इतना बोल हमको आये, हमको जवाब देना आता है, हम बड़े पंडित चतुर हैं (ऐसा) मिथ्या अभिमान बढ़ता है। आत्मा ज्ञानानन्दस्वरूप है, उसके अन्तरभान बिना ऐसे बाह्य पठन, कषाय वृद्धि करता है। ख्याति पूजा लाभ का प्रेमी होकर.... बाहर में प्रेमी है, दुनिया में बड़ा कहे। सांसारिक विषय-कषाय की पुष्टि के लिए ही ज्ञान का उपयोग करता है। उसमें कभी अध्यात्मिक ग्रन्थ नहीं पढ़ता, कभी आत्मा के शुद्धस्वरूप का मनन नहीं करता। कदाचित् पढ़े तो भी अन्दर मनन (नहीं करता) अन्तर में आनन्दस्वरूप में झुकाव करके निर्विकल्प दशा प्रगट करना (चाहिए), वह नहीं करता। उसके अन्दर संसार का मोह घटने के बदले बढ़ता जाता है। ठीक लिखा है। किस ओर है ? यहाँ (है)? है या नहीं अन्दर? है।