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गाथा-५३
अनुयोगों के ग्रन्थ पढ़कर.... चारों अनुयोग पढ़कर, छह द्रव्य जानकर, नव तत्त्व जानकर, पंचास्तिकाय को जानकर.... जानकर अन्दर निकालना तो आत्मा है; उस आत्मसन्मुख का अनुभव और दृष्टि नहीं है तो उस चारों अनुयोग के पठन को-सबको यहाँ जड़ कहा है। जिसका चार गति का फल है, उसे जड़ कहा है। समझ में आया?
भेदज्ञान की कला प्राप्त करके निश्चयसम्यग्दर्शन के लाभ के लिये नित्य भेदविज्ञान का मनन करना।शास्त्र कहकर तो यह कहना है न कि राग और कर्म से तेरी चीज भिन्न है और यह आत्मा अपने अनन्त स्वभाव-गुण से अभिन्न है। समझ में आया? आत्मा अनन्त गुण शुद्ध चैतन्य, अतीन्द्रिय आनन्द आदि गुण आत्मा के हैं – ऐसे गुण से आत्मा अभिन्न एक है और राग, विकार, शरीर से आत्मा भिन्न है। यदि ऐसे आत्मा का अन्तर ज्ञान, निर्विकल्प वेदन और दृष्टि नहीं की तो इस शास्त्र पठन का उसे कोई फल नहीं। आहा...हा...! कहो, समझ में आया इसमें कुछ ? कपूरचन्दजी ! क्या करना? चक्की लाकर गेहूँ दलना.... उसे पता लगता है। आहा...हा...!
कहते हैं, भाई! यह तो बाहर की वस्तु है। वस्तुस्वरूप एक समय में सच्चिदानन्दस्वरूप आत्मा है। आत्मा शाश्वत् ज्ञान और आनन्द का भण्डार है। उस आत्मा का अन्तर अनुभव करना और दृष्टि करके लीन होना, यही सम्पूर्ण (जिनागम का सार है)। शास्त्र भले ही कम पढ़ा हो, विशेष आता न हो परन्तु करने योग्य यह है। यह न किया होवे तो उसने पढ़कर क्या किया? समझ में आया?
यहाँ नीचे इन्होंने थोड़ा लिखा है। समझ में आया? अन्दर आत्मा का साक्षात्कार हो जाता है। यदि अन्तर में प्रयत्न करे तो आत्मानन्द का अनुभव होता है, तभी मोक्षमार्ग का पता मिलता है। अन्तर का आत्मा ज्ञायक निर्विकल्प है – ऐसा प्रतीति में आने पर, मोक्ष का मार्ग यह है – ऐसा उसे पता लग जाएगा। इसके बिना शास्त्र पढ़ने में कुछ पता नहीं लगेगा। समस्त शास्त्रों के पठन का हेतु सम्यग्दर्शन का लाभ है। देखो! पहले यह लिया। अन्य कहें, क्रिया करना, व्रत पालना – यह शास्त्र का फल है। यहाँ तो कहते हैं कि पहले सम्यग्दर्शन करना, यह पहला फल है। सम्यग्दर्शन के बाद स्वरूप में स्थिरता-चारित्र करे, वह तो उत्कृष्ट वैराग्य है, उत्कृष्ट पुरुषार्थ है, परन्तु पहले