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वीर संवत २४९२, आषाढ़ शुक्ल १०,
गाथा ५३ से ५६
सोमवार, दिनाङ्क २७-०६-१९६६ प्रवचन नं.१९
सत्थ पढंतह ते वि जड अप्पा जे ण मुणंति।
तहिं कारणि ए जीव फुडुण हु णिव्वाणु लहंति॥५३॥
शास्त्र पढ़ने पर भी, उस शास्त्र का सार आत्मा अनन्त शुद्ध आनन्दकन्द है, उसका सम्यग्दर्शन प्रगट करना चाहिए और उसका अनुभव करना चाहिए - वह करता नहीं और अकेला शास्त्र का व्याकरण, वैद्यक, काव्य, न्याय और ज्योतिष, धर्म शास्त्र पढ़े परन्तु अन्तर स्वरूप शुद्ध अभेद है, उस पर लक्ष्य, दृष्टि अभेद पर न करे तो इसके शास्त्र मन्थन में कोई सार नहीं है। कहो, समझ में आया इसमें?
अध्यात्म से बाहर रहता है। अन्तर स्वरूप.... वीतराग के शास्त्र का कहने का आशय तो (यह है कि) भगवान आत्मा एक समय में अभेद पूर्ण वस्तु है – उसका अनुभव करना, उसका ज्ञान करके उसके अन्दर में एकाग्र होना, यह शास्त्र का सार है। शास्त्र पढ़कर भी यह न करे तो उन शास्त्र पढ़नेवालों को जड़ कहा है। जड़ कहा है न? पढ़-पढ़कर करने का था, वह तो किया नहीं; शास्त्र के पठन में रुक गया। देखो! अन्दर है, इस तरफ.....
जड़ जैसे ही आत्मज्ञान रहित हैं। जिनवाणी जानने का फल निश्चयसम्यग्दर्शन की प्राप्ति करने का प्रयास है। जिनवाणी सुनकर, पढ़कर, धारण कर फल तो यह है कि अन्दर स्वरूप का निश्चयसम्यक् निर्विकल्प आत्मा की प्रतीति करना और अनुभव करना, यह उसका सार है। यह नहीं किया, इसके बिना क्रियाकाण्ड और शास्त्र-पठन किया करे, उसमें कहीं आत्मा का झुकाव नहीं होता, (उसे) जड़ कहा है, जड़। चार