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गाथा-५२
उत्तर – किसकी प्रेम मिलता होगा, तुझे मान चाहिए, उसमें प्रेरणा कहाँ रही? समझ में आया? कोई धनादिक का संग्रह करता है – ऐसी बात है।
फिर आत्मानुशासन की थोड़ी बात करते हैं। बालवय में अंग ही पूरे नहीं बनते तब अज्ञानी होकर अपने हित-अहित का विचार नहीं कर सकता है। है न? जवानी में काम से अन्धा होकर स्त्रीरूपी वृक्ष से भरे वन में भटकता रहता है। प्रौढ़ावस्था में तृष्णा की वृद्धि करके अज्ञानी प्राणी खेती आदि कार्यों द्वारा धन कमाने में कष्ट पाया करता है। और बाहर त्यागी होवे तो रागादि की क्रिया में पड़ता है। सब एक ही प्रकार का धन्धा है। इतने में बुढ़ापा आ जाता है, तब अधमरा हो जाता है। भला भाई! हम मनुष्य जन्म को सफल करने के लिए निर्मल धर्म कहाँ करते हैं ? अब इसे धर्म करने का अवसर कहाँ ? वह समय तो गँवा दिया। टोडरमलजी कहते हैं न! एक तो वास्तव में समय आया, तब व्यवहारधर्म में इसमें समय गँवाया। व्यवहारधर्म अर्थात् राग
और पुण्य, दया और दान, इसमें गँवाया; (आत्मा का) निश्चय करने का, अनुभव का समय तो चला गया। समझ में आया? ए... रतिभाई! अद्भुत यह।
आत्मज्ञान बिना शास्त्रपठन निष्फल है सत्थ पढंतह ते वि जड अप्पा जे ण मुणंति। तहिं कारणि ए जीव फुडुण हु णिव्वाणु लहंति॥५३॥
शास्त्र पाठि भी मूढ़सम, जो निज तत्त्व अजान।
इस कारण इस जीव को, मिले नहीं निर्वाण॥ अन्वयार्थ – (सत्थ पढंतह जे अप्पा ण मुणंति ते वि जड) शास्त्रों को पढ़ते हुए जो आत्म को नहीं पहचानते हैं, वे भी अज्ञानी हैं (तहिं कारणि ए जीव फुडु लहंति) यही कारण है कि ऐसे शास्त्र पाठी जीव भी निर्वाण को नहीं जाते हैं, यह बात स्पष्ट है।