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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
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अब, ५३ - शास्त्र पाठी... देखो ! इसमें लिखा है, हाँ ! गुरु से सुनता है परन्तु समझे नहीं तो शून्य है, कहते हैं । आत्मज्ञान बिना शास्त्रपाठ निष्फल है। लो ! आया अब । यह तेरा शास्त्र पढ़ परन्तु यह आत्मा शास्त्र के पठन के विकल्प से भिन्न है, ऐसे सम्यक् के अनुभव बिना तेरे शास्त्र का पठन भी रण में चिल्लाने जैसा है । आहा... हा... ! बहुत परन्तु यह तो किसी का सब निकाल देते हैं । छिलके तो निकाल ही डाले न !
सत्थ पढंतह ते वि जड अप्पा जेण मुणंति ।
तहिं कारण ए जीव फुडु ण हु णिव्वाणु लहंति ॥ ५३ ॥
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देखा ! जड़ कहा, जड़ । शास्त्रों को पढ़ते हुए भी जो आत्मा को नहीं पहचानते...... शास्त्र-पठन, यह किया और यह किया और यह किया ... यह तो सब विकल्प हैं, यह तो राग है। शास्त्र का पठन तो परलक्ष्यी ज्ञान है।
मुमुक्षु - परन्तु शास्त्र में सातवें गुणस्थान में अनुभव लिखा है ।
उत्तर – धूल में भी नहीं लिखा उसमें । शास्त्र में लिखा है कि चौथे गुणस्थान में निर्विकल्प अनुभव होता है। समझ में आया ? आत्मा में चौथे गुणस्थान में स्वरूपाचरण दशा प्रगट होती है। आत्मा में चौथे गुणस्थान में अतीन्द्रिय आनन्द का स्वाद आता है ऐसा भगवान ने कहा है । आठवें में कहीं नहीं लिखा है । उलटे (अर्थ) निकालते हैं।
'सत्थ पढंतह' कहा न ? देखो न ! कितने ही विद्वान् अथवा स्वाध्याय करनेवाले व्याकरण, न्याय, काव्य, वैद्यत्व, ज्योतिष, धर्मशास्त्र आदि अनेक विषय के शास्त्र जानते हैं परन्तु शुद्धनिश्चयनय के विषय ऊपर लक्ष्य नहीं देते हैं । लो, भगवान आत्मा शुद्ध चिदानन्द की मूर्ति परमानन्द, विकल्प और राग से रहित है; उस पर वे दृष्टि नहीं देते हैं, पुरुषार्थ नहीं करते । आहा... हा... ! देखो ! अन्दर धर्म शास्त्र लिखा है, हाँ! आत्मज्ञान से बाहर रहते हैं, देखा ! अध्यात्मज्ञान से बाहर रहते हैं । अध्यात्मज्ञान का पता नहीं पड़ता । उसका यह है और व्याकरण ऐसा होता है, इसका शब्दकोश ऐसा होता है, इसकी यह धातु होती है और यह धातु होती है.... तेरी चैतन्य धातु कैसी है ? यह तो निर्णय कर । बल्लभदासभाई ! अरे...अरे... ! भारी झटके हैं हाँ ! यह बहिनें, नहीं ? दाने, फटकती है दाने ? सूपड़ में फटकती हैं। फिर नीचे मारती हैं गब्बोई, वे जरा छिलके (होते