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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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वह तो वास्तव में पुण्य-बन्ध का कारण है। उसके प्रेम में फँसने से अन्दर भगवान आत्मा विस्मृत हो जाता है । यह धन्धा छोड़ – ऐसा कहते हैं । समझ में आया? यह व्यवहार है, यह धन्धा खोटा है – ऐसा यहाँ कहते हैं, वह कहते हैं।
यही कारण है जिससे जीव निर्वाण प्राप्त नहीं करते... देखो इस व्यवहार के पुण्य की क्रियाकाण्ड में फंसे... स्वयं करते हैं, दूसरों से कराते हैं, करते हुए को अनुमोदना देते हैं। ओहो...हो...! बहुत अच्छा किया। पाँच लाख-दस लाख खर्च करके एक मन्दिर बनाया हो (तो कहे) तीर्थंकर गोत्र बाँधोगे.... धूल में भी नहीं बाँधेगा, सुन न ! पैसा खर्च किया उसमें राग मन्द किया हो तो कदाचित् पुण्य होगा। उस पुण्य में तीर्थंकर गोत्र नहीं बाँधेगा, उस पुण्य से लाभ माने वह तो मिथ्यादृष्टि जीव है। समझ में आया? आहा...हा...! हीरालालजी ! क्या है ? पुस्तक है या नहीं? यह आया न?
सकल संसार, शरीर में प्राप्त इन्द्रियों के विषयों के तथा भूख-प्यास के रोग.... उसमें पड़े हैं । यह तो स्थूल बात करते हैं। उसे कोई परोपकारी गुरु मिलता है, कहते हैं । सुनाना चाहता है, तो उसकी तरफ ध्यान नहीं देता.... ध्यान नहीं देता, यह तो सब निश्चय की बातें करते हैं, निश्चय की बातें करते हैं (ऐसा करके) निकाल देता है। निश्चय अर्थात् सच्ची, व्यवहार अर्थात् आरोपित – खोटी... सुन न ! यह तो निश्चय की बात करते हैं, लो! आत्मा ऐसा और आत्मा ऐसा, आत्मा ऐसा... कुछ करना नहीं? परन्त क्या करना? अन्दर पहचान करके स्थिर होना. यह करना है। आत्मा में ज्ञान और श्रद्धा करके अन्दर स्थिर होना, यह करना है। दूसरा करना क्या है ? आहा...हा...! ___कहते हैं कि मनरहित पंचेन्द्रिय को हित-अहित का विचार करने की शक्ति नहीं है। तुझे कुछ शक्ति मिली तो तू पर में घुस गया। समझ में आया? नारकी जीवों का धन्धा मार खाना और दूसरों को मारना है। यह धन्धे की व्याख्या की। मान कषाय की तीव्रता से मनुष्यों को अपनी प्रसिद्धि करने की तीव्र इच्छा ( रहती है)। मान-कषाय के लिए तीव्र इच्छा-मान दो, अभिनन्दन दो, हमारा नाम रखो, पाँच लाख का मकान, बनाकर हमारा नाम रखो.... नाम रखना है न? भटकने का... नाम खोना नहीं है न?
मुमुक्षु - दूसरों को दान करने की प्रेरणा मिलती है।