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गाथा-५२
- एक-एक लिया, हाँ! हमें धर्मोपदेश करना, हमें दूसरों को सुनाना है, हमें समझाना है, यह भी पूरा राग का धन्धा है। धूल में भी निर्जरा नहीं, निर्जरा कहाँ थी? प्रभावना किसकी? धूल में... राग होता है, उसमें प्रभावना कहाँ आयी? हैं ?
मुमुक्षु – दिशा बदली। उत्तर – किसकी दिशा बदली? वही की वही दिशा है, पर की और पर की दिशा है।
सकल जगत, लिया है। देखो! हैं ? 'णवि अप्पा हु मुणंति' देखो, इसमें आत्मा को देखने-जानने के लिए निवृत्त नहीं होता (आत्मा तो) अत्यन्त निर्विकल्प तत्त्व है। निर्विकल्प तत्त्व.... जिसमें एक विकल्प शास्त्र सुनूँ और शास्त्र दूसरे को कहूँ – इस विकल्प का जिसमें अवकाश नहीं है। आहा...हा...! हरिप्रसादजी! आहा...हा...! यह वीतरागमार्ग है। सर्वज्ञ परमेश्वर त्रिलोकनाथ परमात्मा अन्दर समझकर, अन्दर में समा गये। समझ में आया?
कहते हैं कि जिसे आत्मा का – अन्तर ज्ञानानन्द का प्रेम नहीं है, वह कोई अशुभ के धन्धे में फँसे, कोई शुभराग के व्यवहार-धन्धे में फँसे हैं, यह व्यवहार राग, यह सब संसार ही है। आहा...हा...! समझ में आया? अपना नाम रखने के लिए नये-नये पुस्तक बनाना... हमने हमारी नयी पुस्तक बनायी है, हमने इतनी पुस्तकें बनायी हैं.... होली एक ही है। बल्लभदासभाई! और फिर कोई सेठ आवे, उससे कहे यह पुस्तक पाँच ले जाओ, पाँच-पाँच ले जाओ, एक रखना और दूसरे प्रभावना करना – यही धन्धा? वे लड़के के राग का धन्धा, तेरे यह धन्धा। समझ में आया?
यहाँ तो कहते हैं, भाई! प्रभु! तू अन्तर्निर्विकल्प-विकल्प के शुभराग से रहित चीज है न! उसका तुझे प्रेम नहीं है, उससे विरुद्ध राग के प्रेम के धन्धे में फँसा है (उसमें) भगवान तू भूल गया है। आहा...हा...! समझ में आया, माँगीरामजी? कितने ही तो धन्धे के लिए पुस्तकें भी रखते हैं, हमारे द्वारा बनायी हुई इतनी पुस्तकें हैं। एक-एक सेट ले जा, एक-एक सेट ले जाओ, तुझे यही धन्धा है ? वह लेनेवाला ऐसा कहे, ओ...हो...! महाराज ने बहुत प्रभावना की है। ए... ज्ञानचन्दजी!
भगवान ज्ञानस्वरूप में अन्तर एकाग्र होना, वह ज्ञान की प्रभावना है। यह राग है,