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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
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वह सब (आत्म) योग से विरुद्ध योग है । कहो, इसमें समझ में आया ? साधु होकर या त्यागी होकर फुरसत में कहाँ (पड़ता है) ? कितने पत्र, कितने कागज, कितने समाचार, कितने तार... उसका यह धन्धा.... यह तो सब पाप का धन्धा है ।
मुमुक्षु - इतना परिग्रह लौकिक में भी नहीं होता ।
उत्तर - इतने पत्र भी नहीं होते, मलूकचन्दभाई ! आहा... हा...! सबेरे से शाम एक तो व्यक्ति रखा हो, इतने पत्र आये ? कितने आये ? उसे लिखो, यह पत्र इसे लिखो... तेरा धन्धा ही यह है | भगवान कहाँ गया तेरा ? कहो, समझ में आया ?
जगत् के सभी प्राणी अपने-अपने धन्धे में - व्यवहार में फँसे हुए हैं, तल्लीन हैं, इसलिए निश्चय से आत्मा को नहीं मानते हैं। देखो, वे आत्मा को मानते ही नहीं । जो पुण्य और पाप के राग के प्रेम में फँसे हैं, उन्हें आत्मा क्या है - उसका प्रेम है ही नहीं । समझ में आया ? जगत् के धन्धे वाला अशुभभाव के पाप में - यह करूँ और यह कमाया, लड़के हुए, और विवाह किया, यह हुआ कुछ बड़े ... वे वहाँ पड़े हैं । त्यागी नाम धरानेवाले... नाम धरानेवाले, हाँ ! वे भी शुभभाव के राग में कदाचित् यह किया और यह लिया, यह दिया, यह धूल की उसमें पड़े हैं, वे सब फँसे हुए हैं। 'सांगो कहे सलवाणा, कईं चढ्या कईं पाला' समझ में आया ? जेल में पड़े हैं, जेल में ।
एक ऊँट को जेल में डाला और एक सेठ को डाला। वह सेठ कहता है (कि) ऊँट के ऊपर बैठा हूँ परन्तु बैठा है जेल में न ? समझ में आया ? इसी प्रकार वस्त्र बदलकर नग्न होकर बैठे, साधु भी किसका नग्न ? वह क्रिया तो जड़ की है और अन्दर में कोई दया, दान का परिणाम हो तो विकार है, वहीं फँसा है। भगवान आत्मा, राग की क्रिया, देहरहित है - ऐसे आत्मा का प्रेम करने का समय नहीं निकालता । हरिप्रसादजी ! योगीन्द्रदेव ऐसा कहते हैं । आहा... हा...!
यह सब पता है। तुम नाचनेवाले और (हम) देखनेवाले । नाचनेवाले को मेहनत पड़ती है, उस देखनेवाले को मेहनत क्या पड़े? हैं ? ऐसे नाचता है, देख लिया, हो गया, जाओ ! ए... निहालभाई ! भाषा कैसी ली है, देखो न !
सकल जगत् – ऐसा लिया है न ?' धंधइ पडियउ सयल जगि' जग शब्द में सब