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गाथा-५
भगवान आत्मा शुद्ध सहजानन्द की मूर्ति में सावधानपने श्रद्धा - ज्ञान और शान्ति में उसे आश्रय बनाना, वह एक ही मुक्ति का मार्ग है। संवर, निर्जरा का मार्ग यह एक ही आत्मा की ओर का ध्यान, वह संवर निर्जरा का मार्ग है। समझ में आया ? भाई ! पाँच हाथ बाहर में नियम लिया, लो ! परन्तु धूल में, नियम किस काम का तेरा ? नियम, अन्दर में हाथ जोड़ कि पुण्य-पाप के दोनों विकल्प छोड़ने जैसे हैं; निर्विकल्प आत्मा का ध्या आदरणीय है। उसने वास्तविक प्रत्याख्यान या पच्चक्खाण किया, बाकी तो अज्ञानरूप प्रत्याख्यान है। समझ में आया इसमें ? देखो !
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'अप्पा झायहि' बहुत संक्षिप्त बात (की) । आत्मा, उसे पहचान। आत्मा अर्थात् पुण्य-पाप रहित, एक समय की पर्याय जितना नहीं... भगवान पूर्णानन्द प्रभु, जिसके अन्तर्मुख के अवलोकन से संसार की कहीं गन्ध नहीं रहती । ऐसे आत्मा का निर्मल..... वापस वह निर्मल.... निर्मल है न ? उस मलिन पर्याय को छोड़ने का कहा । निर्मल आत्मा त्रिकाली का ध्यान कर । लो ! यह मोक्ष का मार्ग। इसमें सामायिक, प्रौषध और प्रतिक्रमण और ये कब, कहाँ आयेंगे ?
मुमुक्षु ध्यान की पर्याय भी सामायिक है।
उत्तर - वह सामायिक है । आत्मा अखण्डानन्द प्रभु के सन्मुख देखकर एकाग्र होने का नाम सामायिक है, उसका नाम प्रौषध है, उसका नाम प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान है, उसका नाम सम्यग्दर्शन- ज्ञान और चारित्र है । आहा...हा... ! समझ में आया ?
'णिम्मलउ अप्पा झायहि' निर्मल आत्मा का ध्यान है... भगवान विराजता है न! कहते हैं । पूर्णानन्द का नाथ, उसकी दृष्टि कर, उसका ज्ञान कर, और उसमें स्थिर हो
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- इन तीनों को यहाँ ध्यान में समाहित कर लिया है। यह मोक्षमार्ग - सम्यग्दर्शन- ज्ञान -चारित्राणि मोक्षमार्ग: यह शब्द तत्त्वार्थसूत्र का है । इन तीनों को यहाँ ध्यान में समाहित कर दिया है। आहा... हा...! और तीनों को आत्मा शुद्ध पवित्र, उसकी ओर का अवलोकन, श्रद्धा-ज्ञान और शान्ति ( हुए) उसे यहाँ ध्यान कहते हैं । उस निर्मल आत्मा SAT यान ही मोक्ष का मार्ग अथवा मोक्षसुख का कारण है। वह पूर्ण सुख का कारण है। समझ में आया ?