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________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) ३५ छोड़। देखो! पहले त्याग की बात की... यह त्याग... किसका त्याग? इस शुभ-अशुभभाव का त्याग। घरबार कब आ गये थे तो उनका त्याग करे? घरबार तो उनके घर में बाहर ही पड़े हैं। यहाँ कहाँ अन्दर में आ गये हैं? यह (गति) थी, उसकी पर्याय में उसकी बात करते हैं। उसकी पर्याय में पर्यायरूप से पकड़ा हुआ परभाव, उसे द्रव्यदृष्टि से तू छोड़। आहा...हा...! समझ में आया? यह कहेंगे, देखो! छोड़कर फिर करना क्या? यहाँ तो अभी परभाव को छुड़ाकर पूरी लम्बी व्याख्या है। व्यवहाररत्नत्रय का विकल्प भी परभाव है। समझ में आया? दया, दान, व्रत, भक्ति का परिणाम परभाव है। छोड़! वह गति का कारण है, मोक्ष का कारण नहीं। 'अप्पा झायहि णिम्मलउ' अब तब करना क्या? यह तो नास्ति हुई। निर्मल आत्मा का ध्यान कर.... लो! यह मोक्ष का मार्ग... भगवान आत्मा निर्मल... निर्मल क्यों लिया? कि दूसरी अशुद्ध पर्याय मलिन दिखती है न? उस अशुद्धता को छोड़ - ऐसा कहा। अशुद्ध जो विकारी पर्याय है, पुण्यादि, वह तो छोड़ने योग्य है। तब अब (कहते हैं) आत्मा का ध्यान (कर)! परन्तु आत्मा कैसा है, यह समझे बिना ध्यान किसका करेगा? समझ में आया? अनादि अनन्त सच्चिदानन्द स्वसत्ता से विराजमान पूर्णानन्द का नाथ केवलज्ञान सत्ता से भरपूर तत्त्व है। अकेला केवलज्ञान से भरा हुआ तत्त्व है। ऐसे भगवान आत्मा को, जिसमें अनन्त निर्मल गुण पड़े हैं, निर्मल गुण पड़े हैं ! मलिनता का त्याग, निर्मल गुणों से भरे हुए भगवान का ध्यान उसकी पर्याय में कर - ऐसा कहते हैं। अप्पा यह वस्तु है । अप्पा यह वस्तु है - निर्मल आत्मा। ध्यान कर, यह पर्याय है। क्या कहा? मोक्ष के सुख का उपाय, यह मोक्ष का मार्ग.... आत्मा आनन्दकन्द ज्ञानमूर्ति, उसका ध्यान करना, वह मोक्ष का मार्ग है। ध्यान में दर्शन, ज्ञान और चारित्र तीनों आ गये हैं। अपनी सत्ता शुद्ध सत्तावाला पदार्थ, अशुद्ध मलिनता का जहाँ त्याग (हुआ), वहाँ शुद्ध सत्ता का आदरना, उस शुद्ध सत्ता का आदर करना, ध्यान करना, इसका नाम मोक्ष का मार्ग है। अब इसमें व्यवहाररत्नत्रय मोक्ष का मार्ग है, इसका निषेध हो जाता है। अरे... ! परन्तु शास्त्र में मोक्षमार्ग के मार्ग दो कहे हैं। मोक्ष का मार्ग दो - निश्चय और एक व्यवहार । अरे! चल... चल...! मोक्षमार्ग दो कैसे? मार्ग तो एक ही है। आत्मा का ध्यान करना, वह एक ही मोक्ष का मार्ग है।
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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