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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
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दूसरे प्रकार से कहें तो यहाँ जो वह शुभभाव आदि था न ? वह आत्मध्यान नहीं था, वह परध्यान था। समझ में आया ? साधु के अट्ठाईस मूलगुण वह परभाव, परध्यान है; वह आत्मध्यान नहीं । वह परध्यान था, परभाव का ध्यान था । अद्भुत बातें, भाई ! भगवान आत्मा, अपने शुद्ध निर्मल स्वभाव को अन्तर्मुखदृष्टि करके स्थिरता - ध्यान करे, एक ही आत्मा के पूर्ण आनन्दरूपी मोक्षसुख का यह एक ही उपाय है। देखो, इसमें दो मोक्षमार्ग हैं - ऐसा नहीं है । इस आत्मा का ध्यान, यह एक ही मोक्ष का मार्ग है। समझ में आया ?
यह तो अभी आगे आयेगा। यहाँ तो पहले से सिद्ध करते जाते हैं ।
'अप्पा झायहि णिम्मलउ जिम सिवसुक्ख लहेवि' देखो! एक-दो पद में कारण और कार्य दो बताये । पहले में आत्मा शुद्ध भगवान पवित्र है, वह व्यवहार के विकल्प से भिन्न है, उसका ध्यान कर, इसे (परभाव को) छोड़ । यहाँ ध्यान कर तो 'लहेवि'। 'जिम' प्राप्त करे। क्या ? 'जिम' अर्थात् जिससे.... जिससे 'सिवसुक्ख लहेवि' मोक्ष के सुख को तू प्राप्त कर सके। लो, यह आत्मा के पूर्ण आनन्द के सुख को प्राप्त कर सके। इसके अतिरिक्त दूसरा कोई उपाय नहीं है । आहा... हा... ! इसमें भगवान की मूर्ति या पूजा या जात्रा - वात्रा तो कहीं आयी नहीं, हाँ ! इसमें । यह परभाव शुभ हो, उसका लक्ष्य छोड़, यहाँ ध्यान कर । इतना मोक्ष का कारण है।
सत्य है।
क्या सत्य है परन्तु अभी तुम्हें मन्दिर बनाना है न ठीक ? अभी से होश
मुमुक्षु
उत्तर
उड़ जायेंगे।
मुमुक्षु - वह तुम्हारे लिये नहीं ।
उत्तर - दो के मार्ग अलग होंगे ? यह तो हमारे कहे न, होश उड़ जाये, होश उड़ जाये । होश उड़ जाता है, क्या करना ? उसे यथार्थ तत्त्व की दृष्टि होवे कि ओ...हो... ! हम यह कर नहीं सकते, होने के काल में होता है । विकल्प, राग आता है, वह भी मेरे वहाँ एकाग्र रहनेयोग्य नहीं है - ऐसा होता है । आहा... हा...! तब वे कहते हैं, बात अच्छी कर हैं परन्तु फिर लाखों के मन्दिर बनाते हैं । परन्तु कौन बनाता है? सुन तो सही। वापस गाँव