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गाथा-५१
नर्कवास सम जर्जरित, जानो मलिन शरीर।
करि शुद्धातम भावना, शीघ्र लहो भवतीर॥ अन्वयार्थ – (जेहउ णरय-धरूजरू) जैसा नरक का वास आपत्तियों से जर्जरित है (तेहउ सरीरू बुज्झि ) तैसे ही शरीर के वास को समझ (णिम्मलउ अप्पा भावहि) निर्मल आत्मा की भावना कर (लहु भवतीरू पावहि) जिससे शीघ्र ही संसार से पार हो।
शरीर को नरक घर जानो। ऐसा लिखा है, पाठ में दूसरा है। जेहउ जजजरू णरय-धरू तेहउ बुज्झि शरीरू।
अप्पा भावहि णिम्मलउ लहु पावहि भावतीरू॥५१॥
यह किसलिए कहते हैं ? भगवान अनाकुल आनन्द के प्रेम में, कहते हैं कि यह शरीर नरक के घर जैसा जर्जरित तुझे दिखेगा। नव द्वार से मल, मूत्र, थूक, चारों ओर से पसीना झरे – ऐसी यह धूल है। भगवान आत्मा आनन्द का कन्द है। आहा...हा...! कहो, बल्लभदासभाई! आत्मा आनन्द सच्चिदानन्द सत् शाश्वत्, शाश्वत् ज्ञान और आनन्द का सागर, सरोवर है भगवान, उसके प्रेम के बिना तुझे यह शरीर मीठा लगता है। चाट लें, शरीर का मानो भोग ले, क्या करे, मानो सुन्दर लगे, ऐसा करें, क्या है परन्तु? यह तो हड्डी है, चमड़ी है, माँस है, खून है, पीव है। एक गन्ने जितनी जरा सी चमड़ी उतर जाये, गन्ने की छाल। शेरड़ी समझते हो, गन्ना... गन्ना। एक छिलका उतरे तो पता पड़े। यूँकने के लिए खड़ा न रहे। कहता था न – मेरे भोग के लिए है, बहुत सुन्दर शरीर अद्भुत, मक्खन जैसा ! धूल में भी नहीं, मूर्ख ! तेरे शरीर में तो हड्डियाँ और चमड़ी भरी है अकेले । आहा...हा...!
'जेहउणरय घरु जज्जरु' यहाँ तो शरीर को नरक की उपमा दी है। आहा...हा...! जैसे नरक में सर्व अवस्थाएँ खराब और ग्लानि उपजानेवाली होती है... नीचे नरक है न नारकी? यह माँस और शराब खाने (पीनेवाले) लम्पटी मरकर नरक में जाते हैं।