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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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काम करो। क्या? मछली कहती है – मुझे थोड़ा-सा पानी लाकर दो, प्यासी हूँ, बहुत वर्षों से प्यासी हूँ, एक पानी का प्याला लाकर दो, पानी का प्याला क्या करना है ? यह पानी नहीं भरा है यह सब? (मछली कहने लगी) पानी भरा है ऐसा तुम कहते हो? तब तुम आत्मा ज्ञानरूप नहीं भरे हो? तुम कहाँ अन्दर से चले गये हो। हैं ? मछली ने उससे कहा, मेरे लिए पानी लाकर दो। फिर मैं तुम्हारी प्यास.... पानी तो तेरे पास है, यह रहा समुद्र, देख! तब तू कौन है? यह पूछनेवाला, जाननेवाला है कौन? मछली ऐसे (बाहर) नजर करती है, इसलिए पानी नहीं दिखता, ऐसे (अन्दर) नजर से दिखता है। इसी प्रकार यह अनादि का आत्मा पुण्य और पाप, राग और द्वेष, देहादि की क्रिया बाहर को देखता है परन्तु अन्दर में चिदानन्द जल से भरा हुआ समुद्र है, उसे नहीं देखता। समझ में आया?
भगवान आत्मा.... यह पानी में मीन प्यासी। बल्लभदासभाई! इसी प्रकार आत्मा सच्चिदानन्दस्वरूप है, अनाकुल आनन्द और ज्ञान का सागर अन्दर है परन्तु नजर करें तब न? इसे नजर करने का समय नहीं मिलता। आहा...हा...! समझ में आया? इसलिए कहते हैं - इस
का प्रश्न करना, आत्मा की इच्छा करना.... चाह अर्थात् इच्छा: आत्मा का दर्शन करना। इसकी लगन लगाना, दूसरी लगन छोड़कर; विकार और फल और अमक की. ऐसा पुण्य किया और उसका फल क्या आएगा? छोड न होली अब.... भगवान आत्मा सच्चिदानन्दमूर्ति है, अनाकुल आनन्द का समुद्र है, वहाँ देख। वहाँ तुझे शान्ति मिले ऐसा है। बाहर के क्रियाकाण्ड में कहीं धूल भी नहीं है। समझ में आया? यह दया, दान, भक्ति का परिणाम यह सब राग के भाव हैं। इस राग में आत्मा नहीं है। इसमें धर्म नहीं और राग में आत्मा भी नहीं, इसका प्रेम छोड़कर आत्मा का प्रेम कर। अब, (५१ वीं गाथा में) जरा शरीर की जीर्णता बतलाते हैं।
शरीर को नरक घर जानो जेहउ जजजरू णरय-धरू तेहउ बुज्झि शरीरू। अप्पा भावहि णिम्मलउ लहु पावहि भावतीरू॥५१॥