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गाथा-५०
के आत्माओं को भी उनकी स्थिति को निर्विकारी देखता है। समझ में आया? आहा...हा...! शरीर को देखे, परन्तु वह तो जड़ है – ऐसा देखता है। उसके पुण्य-पाप को जाने परन्तु वह तो विकार है – ऐसा जानता है। इसे - आत्मा को जाने तो निर्विकारी आत्मा है - ऐसा उसे जानता है। आहा...हा...! कहो, समझ में आया? ।
लोक एक शुद्ध आत्मिक सागर बन जाता है। उसी आत्मसागर में वह आत्मज्ञानी एक महामस्य हो जाता है। ऐसा कि आत्मा के आनन्द में स्वयं शुद्ध के प्रेम में पड़ा है न? (इसलिए) सब आनन्दमय आत्मा है – ऐसा भासित होता है। स्वयं जगत् के आनन्दरूपी सागर का मानो मस्य हो – मछली हो जाता है। आहा...हा...! समझ में आया? ज्ञानी जीव ऐसा आत्मरसिक हो जाता है कि उसे तीन लोक की सम्पदा जीर्ण तृण के समान दिखती है। समझ में आया? यह बात की। फिर तो बहुत लिखा है।
पूज्यपादस्वामी का आता है न? मोक्षार्थी के लिए उचित है.... मोक्ष के अर्थी को यह उचित है कि आत्मज्योति के विषय में प्रश्न पूछना... प्रश्न करे तो आत्मा कैसा? आत्मा कैसे प्राप्त हो? आत्मा में क्या है ? आत्मा प्राप्त होवे तो उसे क्या दशा हो? समझ में आया? आत्मार्थी – मोक्षार्थी को ऐसे प्रश्न करना चाहिए। आहा...हा...!
मुमुक्षु - हमारा दुःख कब मिटेगा – ऐसा (प्रश्न करना चाहिए)।
उत्तर – दुःख मिटे यह। आत्मा का दुःख कब मिटे? ऐसा। दुःख कहाँ, यह स्त्री-पुत्र का दुःख है ? आहा...हा...! उसमें – 'अनुभवप्रकाश' में दृष्टान्त दिया है, नहीं? 'पानी में मीन प्यासी मुझ सुन-सुन हाँसी... पानी में मीन प्यासी।' पानी में मीन प्यासी।अनुभवप्रकाश में दृष्टान्त दिया है न? दूसरे में यह भजन है। एक व्यक्ति था, वह कहता – मुझे आत्मज्ञान दो। एक व्यक्ति एक साधु के पास गया, (जाकर कहा), मुझे आत्मज्ञान दो। तब (साधु ने) कहा – मेरे पास तो नहीं है परन्तु समुद्र में एक मछली है, उसके पास जा, मछली तुझे देगी। (वहाँ जाकर) मछली से कहता है भाई! तुम तो बड़े पुरुष हो, हमें किसी ने कहा है कि तुम (आत्मज्ञानी हो) । (तब) मछली कहती है, हाँ, तुम बड़े पुरुष हो कि मुझे यहाँ ढूँढ़ने आये। मछली ऐसा कहती है – मेरा एक