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गाथा-५०
आत्मा आनन्दकन्द का प्रेम लगा, उसे यहाँ योगी, उसे यहाँ धर्मी कहा जाता है। समझ में आया?
___ कहते हैं, हे धर्मी ! जैसे मन विषयों में रमण करता है.... जैसे तेरा मन पाँच इन्द्रियों के शब्द, रूप, रस, गन्ध में रुचि करके रमता है.... समझ में आया? आत्मा अन्तर ज्ञायक चिदानन्दस्वभाव के अतिरिक्त, जो मन अन्तर के-आत्मा के प्रेम अतिरिक्त पूर्णानन्द का नाथ भगवान आत्मा की अन्तर जिसे रति, रुचि और प्रेम नहीं है, उसे पुण्य-पाप और बन्ध व उसके फल में उसका प्रेम है, तो कहते हैं कि जैसा प्रेम तुझे पर में है, वैसा प्रेम यदि आत्मा में करे (तो) अल्पकाल में तेरी मुक्ति होगी। कहो, समझ में आया?
मणु जेहउ विषयहं रमइ विषय शब्द से अकेले भोग आदि, ऐसा नहीं; आत्मा के अतिरिक्त शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श सब, हाँ! आहा...हा... ! जैसा शास्त्र के शब्दों को सुनने का प्रेम है, वह प्रेम भी पर में जाता है। हरिप्रसादजी! आहा...हा...! जैसा प्रेम इसे शब्द में, रूप में, गन्ध में, स्पर्श में, देव-शास्त्र-गुरु में या स्त्री, कुटुम्ब-परिवार में या आत्मा के अतिरिक्त किसी भी कर्म और शरीरादि में जैसा मन वहाँ लीन होकर रमता है.... यहाँ ऐसा कहना है कि वह तेरा ही पुरुषार्थ है कि जहाँ पर में तू रमता है – ऐसा कहते हैं। उसमें कहीं किसी कर्म-बर्म का याद नहीं किया। समझ में आया ? है न? ।
जैसे मन, विषयों में रमण करता है, यदि उसी प्रकार यह मन, आत्मा के ज्ञान में रमे तो.... एक ही सिद्धान्त है। भगवान आत्मा पूर्ण शान्त, आनन्द का रस है, उसका जिसे प्रेम नहीं लगा और जिसे प्रेम इन बाह्य पदार्थों में उल्लसित वीर्य से जहाँ अटका है, कहते हैं कि जैसे भाव से पर में प्रेम से अटका है, (वह) तेरे उल्टे पुरुषार्थ से (अटका है), कर्म के कारण नहीं, किसी (अन्य) के कारण नहीं। भगवान आत्मा अनाकुल आनन्द की मूर्ति प्रभु की ओर का प्रेम छोड़कर, इसको-बाहर की चीज के प्रेम में जिसका मन लीन हो गया है, ऐसी लीनता तूने तेरे उल्टे पुरुषार्थ से की है। ऐसा ही उल्टा पुरुषार्थ जैसे ऐसा किया ऐसा जो गुलांट खा... गुलांट अर्थात् आत्मा के आनन्द में प्रेम कर तो क्षणमात्र में तेरी मुक्ति होगी। समझ में आया?
तुलसीदास कहते हैं – 'जैसी रीति हराम से, तैसी हरि से होय, चला जाए बैकुण्ठ