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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
आयु व्यतीत होती जाती है, फिर भी मन नहीं गलता, तृष्णा नहीं घटती । क्यों नहीं घटती ? कि पर में इसका प्रेम नहीं घटता । तब अब कहते हैं कि (वह) कैसे घटे ?
मुमुक्षु - इतना - इतना सुने और प्रेम नहीं घटे ?
उत्तर
1
• यइ इंकार करते हैं। गुरु का सुने और समझे नहीं तो वह सुना नहीं ऐसा कहते हैं ।
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प्रश्न
वह तो स्वयं के ऊपर है न ।
उत्तर - किसके ऊपर है ? यह आयेगा । उस ५२ वें में (आता है न ) ? किसमें ? ५३ में आता है न ? शास्त्र पठन (भी) आत्मज्ञान के बिना निष्फल है। गुरु के पास सुने तो भी निष्फल है; इस आत्मा की अन्तर्दृष्टि के बिना, आत्मा के अन्तर के आनन्द के प्रेम बिना, उसके अनुभव के बिना गुरु के पास सुने या शास्त्र पढ़े - सब निष्फल है - ऐसा कहते हैं । आहा... हा.... ! समझ में आया ?
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भगवान आत्मा एक सैकेण्ड में असंख्यातवें भाग में आनन्द का कुण्ड है। आहा...हा... ! आनन्द का सरोवर है। समझ में आया ? जैसे, मृगमरीचिका में पानी नहीं, परन्तु सरोवर में पानी है; वैसे ही जगत के किसी पदार्थ में आत्मा को सुख नहीं है; आत्मा सुख है। समझ में आया ? ऐसे आत्मा में अन्दर में आनन्द है - ऐसा प्रेम किये बिना, बाहर के प्रेम के कारण यह अनन्त काल से.... भले ही यह शुभराग - दया, दान, व्रत के परिणाम हों परन्तु भगवान आत्मा से विरुद्ध परिणाम का प्रेम, इसे तृष्णा-वर्द्धक है। पण्डितजी ! हरिप्रसादजी ! समझ में आया ?
भगवान आत्मा.... यह कहते हैं। आत्मा का प्रेमी निर्वाण का पात्र है । है ? देखो !
जे मणु विसयहँ रमइ तिसु जइ अप्प मुणेइ ।
जोइउ भाइ हो जोइयहु लहु णिव्वाणु लहेइ ॥ ५० ॥
बहुत संक्षिप्त भाषा ! योगी महात्मा योगीन्द्रदेव सन्त दिगम्बर महात्मा हैं । (वे) कहते हैं कि हे योगी! हे आत्मा का जुड़ान करनेवाले ! पर का प्रेम छोड़कर, पुण्य-पाप का, शरीर, मन, वाणी, सारी दुनिया, आत्मा के अतिरिक्त सबका प्रेम छोड़कर जिसे