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________________ आत्मप्रेमी ही निर्वाण का पात्र है जेहउ मणु विसयहँ रमइ तिसु जइ अप्प मुणेइ। जोइउ भणइ हो जोइयहु लहु णिव्वाणु लहेइ॥५०॥ ज्यों रमता मन विषय में त्यों ज्यों आतमलीन। मिले शीघ्र निर्वाण पद, धरे न देह नवीन॥ अन्वयार्थ - (जाइउ भणइ ) योगी महात्मा कहते हैं ( हो जाइयहु) हे योगीजनों! (मणुजेहउ विसयहँ रमइ) मन जैसा विषयों में रमण करता है ( जइ तिसु अप्प मुणेइ) यदि वैसा यह मन आत्मा के ज्ञान में रमण करे तो (लहु णिव्वाणुलहेइ) शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त कर ले। वीर संवत २४९२, आषाढ़ शुक्ल ८, गाथा ५० से ५३ रविवार, दिनाङ्क २६-०६-१९६६ प्रवचन नं.१८ ५० वीं गाथा। ४९ वीं में ऐसा आया था। यह योगसार है। योगीन्द्रदेव दिगम्बर मुनि ने ४९ वीं में ऐसा कहा कि यह आय घटती जाती है, फिर भी तष्णा नहीं घटती। आय घटती जाती है और तृष्णा नहीं घटती; बढ़ती है क्योंकि इसे आत्मा के स्वभाव का प्रेम नहीं है। समझ में आया? आत्मा, वह एक ओर राम और दूसरी ओर गाँव । एक ओर आत्मा सच्चिदानन्द अनाकुल आनन्दकन्द पदार्थ है और एक तरफ पुण्य-पाप के विकल्प, राग, शरीर, वाणी, कर्म और बाह्य सामग्री है। जिसे बाह्य सामग्री के प्रति प्रीति है, उसे तृष्णा बढ़ जाती है। भगवान आत्मा शुद्ध सन्तोष का पिण्ड आनन्द का कन्द है। ऐसे आत्मा के अन्तर प्रेम के बिना बाहर की चीज़ के प्रेम से – फिर (भले ही) अन्दर शुभराग का, पुण्य का प्रेम होवे तो भी, वह तृष्णा का वर्द्धक प्रेम ही है। समझ में आया? इस कारण कहते हैं कि
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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