________________
योगसार प्रवचन (भाग-१)
३४९ में, पला न पकड़े कोई।' आता है या नहीं? 'जैसी रीति हराम से' – पैसा, पाँच रुपये मिलें, दस रुपये मिलें, स्त्री अनुकूल बोल, वहाँ (फूल जाता है कि) आहा...हा...! पूरा होम हो जाता है, पूरा होम हो जाता है ! स्वाहा! किसमें? इस पुण्य और पाप, राग
और तृष्णा में स्वाहा (हो जाता है)। उसमें भगवान का धुआँ होता है। आहा...हा...! बल्लभदासभाई!
भगवान परमानन्द की मूर्ति प्रभु आत्मा है। उसका प्रेम छोड़कर, जैसी लीनता पर में लगी, वैसी लीनता यदि तुझमें (सब में) करे, यह तेरे अधिकार की बात है। कर्म घटे
और अमुक हो, उसके साथ कुछ सम्बन्ध नहीं। आहा...हा... ! यहाँ तो भाई ! कर्म को याद भी नहीं किया। तू ऐसे (रमता है), वैसा ऐसे (स्व में) रम – ऐसा कहा है। यह कहते है, कर्म इसे रोकते है, कर्म घटे तो कुछ मोक्ष का मार्ग होवे.... आहा...हा...! भाई ! तेरे शान्तरस का तुझे प्रेम नहीं है। समझ में आया?
आनन्दघनजी एक जगह कहते हैं, अपने आता है, नहीं? निर्जरा अधिकार में (आता है)। जहाँ रति.... निर्जरा अधिकार.... २०६ (गाथा) एक बार कहा था। पालीताना में कहा था, एक बार अहमदाबाद में कहा था। रति... रति... हे आत्मा! आत्मा में रति कर । आत्मा में रति कर का अर्थ यह कि देह की क्रिया मुझे लाभदायक है, पुण्य-पाप के परिणाम मुझे लाभदायक है (ऐसा जो मानता है), उसे आत्मा में रति नहीं है। समझ में आया? तेरा प्रेम पर ने लूट लिया है। एक जरा अनुकूल प्रतिष्ठा हो, बाहर प्रसिद्धि हो. बाहर में इसके गणगान गाये जाते हों. बाहर प्रसिद्धि के लिए मथ जाये, वह मथ जाता है, पूरी जिन्दगी चली जाती है। पाँच-पाँच, पच्चीस-पच्चीस वर्ष पैसा कमाने में, उसकी वासना में उसे प्रसिद्धि पाने में, इसकी कुर्सी सामने आगे लेने का कितना प्रेम है कि जीवन आत्मा को खोकर, आत्मा को खोकर और खो जाये परन्तु पर का प्रेम नहीं छोड़ता। कहो, रतिभाई!
मुमुक्षु - लुटेरे प्रेम लूट ले जायें, उसमें यह क्या करे? उत्तर – यह लुटता है। लूटे कौन? आहा...हा...! जैसा मन... समझ में आया? यह कहा न, रति का? आनन्दघनजी एक जगह