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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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हैं, बहादुरसिंहजी ! हम (संवत्) २००६ की साल में बाहर निकले थे न? जाने के लिए, रास्ते में किसानों को ऐसा मनवावें; उस समय गाँधी का जोर था न? उसमें खड़े थे, नहीं? उस गाँव में.... तुम नहीं थे, नहीं? तुम नहीं थे न? कब कौन सी तिथि और काल की बात नहीं, तब यह था या नहीं इतनी बात है, उसकी लाईन अलग है, वहाँ आगे वे दो घोड़े में खड़े थे और दो घोड़े खड़े हों उसे कहते थे, समझे न? ए... पटेलों! ऐसा मत करना, ए... पटेलों! ऐसा मत करना। वे सबको कहते थे। अरे... ! कहा, यह भी भिखारी है। समझ में आया? भिखारी है, यह रंक है, कहा।
कहते हैं, आहा...हा...! ४९ हैं न यह.... आयु गलती है और तृष्णा गलती नहीं। आयु बीते वैसे तृष्णा बढ़ जाती है। समझ में आया? 'मोहु फुरइ' और मोहभाव फैलता जाता है। 'अप्पाहिउ णवि' परन्तु अपनी आत्मा का हित करने का भाव नहीं होता। आहा...हा...! समय चला जाता है सारा । मान में सम्मान में, बड़प्पन में... यह किया और यह मुझे माना और इसने बड़ा किया.... (जीवन) इसी में चला गया। आत्मा का हित करने का काल सब चला गया। इसका है न? वह गुजराती है न? क्या है गुजराती? गुजराती है या नहीं? कितने का है यह? ४९, इसमें ४८ होगा, इसमें थोड़ा अन्तर है, हाँ! एक का अन्तर है।
मन न घटे आयु घटे, न घटे इच्छा-आश।
तृष्णा मोह सदा बढ़े, इससे भ्रमता खास॥४९॥ बहुत श्लोक किये हैं।
आय गले मन नागले. इच्छा आशा न गलंत।
तृष्णा मोह सदा बढ़े, या ही भव भटकंत॥४८॥ हिन्दी है। यहाँ तो ऐसा कहना है, राजा और भिखारी पर से कुछ महिमा चाहते हैं, उनकी तृष्णा बढ़ती जाती है और मोह की स्थूलता बढ़ जाये व आत्मा का हित उन्हें सूझता नहीं। ऐसा मानो कि हम बढ़ गये-बड़े हो गये, ऐसे हुए-ऐसे हुए। आहा...हा...! समझ में आया? लड़का अच्छा हुआ, फिर आमदनी करने में बढ़े.... मूढ़ मानता है हम बढ़े किसके बड़े?