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________________ ३४४ गाथा-४९ श्रीमद् ने नहीं कहा लक्ष्मी बढ़ी अधिकार भी पर बढ़ गया क्या बोलिये?' लक्ष्मी बड़ी - दो करोड़-पाँच करोड़, धूल करोड़....'लक्ष्मी बढ़ी अधिकार भी पर बढ़ गया क्या बोलिये?' सोलहवें वर्ष में कहते हैं। श्रीमद् राजचन्द्र सोलह वर्ष में (कहते हैं), सात वर्ष में जातिस्मरण था, यह श्रीमद् राजचन्द्र.... १९८७ में देह छूट गया, सात वर्ष में जाति स्मरण-पूर्वभव का ज्ञान था, सोलह वर्ष में मोक्षमाला बनायी, उसमें ऐसा कहते हैं। लक्ष्मी बढ़ी अधिकार भी पर बढ़ गया क्या बोलिये? परिवार और कुटुम्ब है क्या वृद्धि नय पर तोलिये? संसार का बढ़ना अरे नर देह की यह हार है। नहीं एक क्षण तुझको अरे इसका विवेक-विचार है। लक्ष्मी बढ़ी, दुकानें बढ़ी, वह क्या कहलाता है तुम्हारा ? मुख के आगे बैठा हो उसे क्या (कहते हैं)? मुनीम! मुनीम बढ़े यह बढ़े धूल भी नहीं बढ़ी, सुन न! भटकने का बढ़ा है। मुमुक्षु – दिखता तो है। उत्तर – दिखता है न! भटकने का बढ़ा, हैरान... हैरान हो गया है। देखो न ! पता नहीं पड़ता? है ? आहा...हा...! अरे ! मुम्बई जाये तो इसका लड़का इसके साथ बात नहीं करे, इससे कहे बापू! अभी मुझे फुरसत नहीं है। यह जाये तो कहे बापू! मुझे अभी फुरसत नहीं है, हाँ ! बैठो! जाओ घर पर खाकर आना, मैं फुरसत में होऊँगा तो तुम्हारे साथ खाने आऊँगा। इसकी फुरसत नहीं होती। यहाँ तो कहते हैं कि बाहर के साधन बढ़ने से बढ़ा हुआ मानना, यह परिभ्रमण के कारण में बढ़ा है, फँसने के कारण में (बढ़ा है)। नर देह, ऐसा मनुष्य देह मिला.... आहा...हा... ! मुश्किल से जन्म-मरण-जरा को मिटाने का यह भव है, भव को मिटाने का भव है – ऐसे भव को बढ़ाने का साधन बढ़ा परन्तु आत्मा का हित स्फुरित नहीं होता – ऐसा कहते हैं। देखो, है न? अपने आत्मा का हित करने का भाव नहीं होता। समझ में आया? आहा...हा...! चक्रवर्ती जैसी सम्पत्ति और बहुत बात ली है। यहाँ अन्तिम शब्द आत्मानुशासन का है। मनुष्य सदा शरीर का पोषण करता
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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