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गाथा- ४९
यह करूँ.... ऐसा कहना चाहते हैं । यह पर तरफ का यह करूँ, यह करूँ इसमें तो तृष्णा बढ़ जाती है। इसमें कहीं आत्मा को एकाग्र होने का प्रसंग नहीं है । आहा... हा...! आनन्दघनजी ने कहा है न 'आशा औरन की क्या कीजै ? आशा औरन की क्या कीजै ? ज्ञान सुधारस पीजै, आशा औरन की क्या कीजै ?' समझ में आया ? 'भटकत द्वार-द्वार लोकन के कूकर आशाधारी' कूकर आशा - कुत्ता होता है न ? कुत्ता। 'भटकत द्वार-द्वार लोकन के ' 'भूख लगे (इसलिए) बाहर में जहाँ-तहाँ भटकता है। दरवाजा हो वहाँ सिर मारता है। ऐ... टुकड़ा देना, ऐ... कपड़ा देना, ऐ... कपड़ा देना, इसी प्रकार यह मूढ़ जहाँ हो वहाँ मान देना, मुझे बड़ा कहना, मुझे मान देना, मुझे बड़ा कहना, मुझे अच्छा कहना, मैं ऊँचा हूँ – ऐसा कहना । इस आशा तृष्णा के टुकड़े माँगने में भिखारी (की तरह) भ्रमण किया करता है । आहा... हा... !
मुमुक्षु - मैं बड़ा हूँ • ऐसी आशा रखे, कहने न जाये ।
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उत्तर • कहने जाये, जुलूस निकाले उसे कहने जाये । दो-चार तो व्यक्तिगत कहना, हाँ! मैं यहाँ से जाता हूँ और जुलूस तैयार करना, मेरा नाम मत लेना। समझ में आया? और पैसा चाहिए हो तो मैं दूँगा.... दो सौ - तीन सौ चाहिए हो तो मैं दूँगा परन्तु जुलूस निकालना, जुलूस सब इकट्ठे होवें और बहुत लोग हों, मैं तो उसके योग्य नहीं था परन्तु मुझे तुमने यह सम्मान दिया, यह तुम्हारा बड़प्पन है - ऐसा कहकर एक-दूसरे को मक्खन लगाते हैं। हैं? मैं तो इस योग्य नहीं था परन्तु यह तुम्हारा बड़प्पन है कि तुम दूसरे को मान देते हो। वे भी प्रसन्न और यह भी प्रसन्न हो जाता है। जा मरो दोनों ! बनता है न ऐसा। ऐ...ई... ! यह उल्टा बनता है ऐसा । अन्य को गुप्तरूप से कहे, देखो भाई ! इतना करना, हाँ! मेरी प्रतिष्ठा बड़े इतना थोड़ा रखना। तुम मित्र हो न ! स्वयं नहीं कहे, मित्र से कहलावे, जगत में ऐसा होता है। भिखारी हैं, रंक हैं, पागल ! दुनिया से सम्मान लेना चाहते हैं । यह राजा, महाराजा, सब भिखारी हैं। समझ में आया ? भले करोड़-करोड़ की जागीर कहलाये (परन्तु ) रंक के रंक हैं, भिखारी में भिखारी है। हमें बड़ा कहो, हम राजा हैं, हमें बड़ा गिनो ।
एक बार हमने देखा था न ! पालीताना दरबार था न, क्या (नाम) था ? वे मर गये