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गाथा -४८
अकृत्रिम-अकृत अविनाशी – ऐसा चैतन्यप्रभु, उसके स्वभाव में तो परमानन्द और शुद्धता भरी है। उसे पुण्य-पाप के विकल्प से हटकर स्वरूप में बसना, वह सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र - वह आत्मा में बसना है। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः - वह भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव के शिष्य उमास्वामी ने कहा है । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः - यह सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र आत्मा की निर्विकल्प शुद्ध पर्याय है । यह आत्मा में बसे, वह पर्याय कहलाती है । निमित्त और राग में अटके, उसे वहाँ आत्मा में बसा ऐसा कहाँ से आया? आत्मा में बसे, उसे आत्मा की पूर्णदशा प्रगट होती है। समझ में आया ? मुमुक्षु – रोग घटे किस प्रकार ?
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उत्तर
परन्तु रोग घटे कब ? आत्मा में रोग ही नहीं है, रोगरहित चीज और निरोगता देखे, उसमें स्थिर हो तो निरोगता प्रगट हो । १०५ डिग्री बुखार घटा और ९९ रहा, छह महीने चला तो उसे क्षयरोग की शंका पड़ेगी । ९९-९९ रहा करे, भाईसाहब ! कुछ होगा, रात्रि में गर्म बहुत रहता है। रात्रि बारह बजे बाद तपता है। छह महीने तक न मिटे तो उसे यहाँ हॉस्पीटल आना चाहिए। उसे 'अमरगढ़' की हॉस्पीटल फोटो लेने आना चाहिए। क्या है ? भाई ! छह महीने से ९९, ९९, ९९ थोड़ा-थोड़ा रहा करता है । वह लम्बे काल रहे तो क्षय में जाये । समझ में आया ? इसी प्रकार मन्दराग भी ऐसा का ऐसा कर्तृत्वबुद्धि से रहे तो वह क्षय में - मिथ्यात्व में जाता है । आहा...हा... !
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धर्म तो आत्मा का निजस्वभाव है । जिनेन्द्र ने धर्म कहा, भगवान ने इसे धर्म कहा.... धर्म अपने ही पास है..... कहीं बाहर ढूँढ़ने जाना पड़े - ऐसा नहीं है । जगत् को व्यवहार से देखना, ऐसी एक बात ली है, ठीक है। दो-तीन बातें सब ली है, ठीक है, साधारण बात है । कहो ? यह ४८ गाथा (पूरी) हुई ।
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आशा तृष्णा ही संसार भ्रमण का कारण है
आउ गलइ वि मणु गलइ गवि आसा हु गलेह । मोहु फुरइ वि अप्प - हिउ इम संसार भमेइ ॥ ४९ ॥