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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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उतना शुद्धभाव प्रगट होता है, उतना भगवान ने धर्म कहा है और वह धर्म पंचम गति का कारण है। ‘णेई' है न? पंचम गति को प्राप्त कराता है। ‘णेई' (अर्थात्) ले जाता है। वह धर्म पंचम गति मोक्ष को प्राप्त कराता है परन्तु बीच में यह शुभभाव दया, दान, व्रतादि, भगवान की भक्ति आदि हो भले परन्तु वे मोक्ष को पहुँचावें – ऐसी उनमें ताकत नहीं है। वे बन्ध के कारण हैं । आहा...हा... ! जैसे पाप के भाव, बन्ध का कारण हैं, वैसा ही पुण्य का भाव भी बन्ध का कारण है। उनमें बसना वह कहीं मोक्षगति में ले जाये - ऐसी उनमें ताकत नहीं है। दोनों दुःख है, क्या कहा इन्होंने?
मुमुक्षु - इतना मार्ग तो कटेगा....
उत्तर – जरा भी नहीं कटेगा। दोनों ही – पुण्य और पाप बन्धन के ही कारण हैं। आहा...हा...! इसे गले उतारना (कठिन पडता है)।
भगवान आत्मा सर्वज्ञ परमेश्वर त्रिलोकनाथ वीतराग ने ज्ञान में तेरा आत्मा देखा, वह आत्मा तो पूर्ण शुद्ध आनन्दकन्द है। ऐसे आत्मा में अन्तर में एकाग्र होकर स्थिर होना, इसका नाम शुद्धोपयोग और शुद्धधर्म है, यह एक ही मुक्ति का कारण है; बाकी कोई मोक्ष का कारण है नहीं। आहा...हा...! देखो न? वे धर्म मानकर बेचारे मन्दिर और यात्रा पाँच - पाँच लाख निकालते हैं; यात्रा (करेंगे तो) मुक्ति होगी (ऐसा मानते हैं) धूल में भी नहीं होगी। राग मन्द (आवे) अशुभ से बचने के लिए शुभभाव होता है, अशुभ से बचने को शुभभाव होता है परन्तु उससे संवर-निर्जरा होवे – ऐसा है नहीं। अद्भुत बात, भाई! तो करना किसलिए? वह भाव आवे, भाई ! जब इसे पापभाव न हो, एक बात । शुद्धस्वरूप में स्थिरता न हो, दो बात । क्या कहा? शुभभाव अपने आप आता है, आये बिना रहता ही नहीं। जब तक आत्मा पूर्ण वीतरागपने को न प्राप्त करे, तब तक बीच में शुभभाव आता है परन्तु वह आवे तो मोक्ष का कारण है – ऐसा नहीं है । आत्मा को शान्ति का कारण है - ऐसा नहीं है। वह शुभभाव स्वयं ही अशान्ति है। आहा...हा...! यह देखो आया, अशभभाव तीव्र अशान्ति, शभभाव मन्द अशान्ति परन्त है अशान्ति । लो, ठीक! परन्तु अशान्ति है, उसमें जरा शान्ति नहीं है। जरा नजदीक नहीं, अशान्ति में क्या नजदीक आया।
भगवान आत्मा सच्चिदानन्दप्रभु अनादि-अनन्त चैतन्य ज्योत, अनादि-अनन्त