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गाथा-४८
यह योगसार है। जिसे भगवान, आत्मा कहते हैं, वह तो शुद्धस्वभावी वस्तु है। शुद्धस्वभावी वस्तु में बसने को योगसार कहते हैं, उसे मोक्ष का मार्ग कहते हैं।
'सो धम्मु जिण वि उत्तियउ' इसे वीतरागी परमेश्वर ने धर्म कहा है। सर्वज्ञदेव परमेश्वर, जिन्हें एक समय में तीन काल-तीन लोक का ज्ञान था – ऐसे परमेश्वर ने आत्मा में बसने को धर्म कहा है। देखो भाषा है न? आहा...हा...! परमेश्वर सर्वज्ञदेव त्रिलोकनाथ परमात्मा वीतराग परमेश्वर की वाणी में ऐसा आया है कि जितना भगवान आत्मा शुद्धभाव है, उसमें बसे, उसे उतना धर्म होता है। समझ में आया?
'सो धम्मु जिण वि उत्तियउ' वीतराग परमेश्वर ने – सर्वज्ञदेव ने यह आत्मा आनन्दमय देखा है, इस आनन्द में जितना बसे, उतना भगवान परमात्मा ने धर्म कहा है। जितना यह पुण्य और पाप में जाये, उसे भगवान ने अधर्म कहा है। आहा...हा...! अद्भुत बात! माँगीरामजी! बहुत कठिन बात, चलता है न? दिल्ली में क्या चलता है? थोड़ा चलता है – ऐसा कहते हैं।
__ भाई! यह एक आत्मा है या नहीं? तो आत्मा तो उसे कहते हैं कि जिसमें कर्म, शरीर और पुण्य-पाप के भावरहित चीज को आत्मा कहते हैं । आत्मा उसे कहते हैं और केवली ने उसे आत्मा कहा, परमेश्वर ने उसे आत्मा कहा है। शरीर, कर्म को तो भगवान ने अजीव कहा है। वाणी, शरीर और कर्म अजीव कहे; आत्मा में पुण्य-पाप के भाव हों उन्हें भगवान ने आस्रव-बन्ध का कारण कहा है। वे कहीं आत्मा नहीं हैं । आहा...हा...! अद्भुत बात! कठिन.... । इस आस्रव के पुण्य-पाप के भावरहित त्रिकाली आत्मचीज को अकेले वीतराग-विज्ञानघन शुद्धभाव से भरपूर तत्त्व है – ऐसे शुद्धभाव में बसे, उसे शुद्धभाव प्रगट होता है। समझ में आया? जितना यह दया, दान, व्रत, भक्ति के परिणाम में, आवे उतना वह अशुद्धभाव है, बन्धभाव है, वह अधर्मभाव है।
मुमुक्षु - अशुद्धभाव अर्थात् बन्धभाव।
उत्तर – यहाँ तो कहा न, देखो न ! दो ही भाषा है, दो ही बात है। राग-द्वेष के विकल्प शुभ हों या अशुभ हों, उन्हें छोड़कर, भगवान आत्मा अनन्त शान्त और आनन्द सच्चिदानन्द प्रभु में बसे, वह भगवान आत्मा आत्मा में बसे, रहे, स्थिर हो, एकाग्र हो,