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________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) ३३७ राग-द्वेष त्यागकर आत्मस्थ होना धर्म है राय-रोस बे परिहरिवि जो अप्पाणि वसेइ। सो धम्मु वि जिण-उत्तियउ जो पंचक गइ णेइ॥४८॥ राग द्वेष दोऊ त्याग के, निज में करे निवास। जिनवर भाषित धर्म वह, पञ्चम गति में वास॥ अन्वयार्थ – (राय-रोस बे परिहरिवि) राग-द्वेष दोनों को छोड़कर वीतराग होकर (जो अप्पाणि वसेइ) जो अपने भीतर आत्मा में वास करता है, आत्मा में विश्राम करता है (धम्मु जिण वि उत्तियउ) उसी को जिनेन्द्र ने धर्म कहा है (जो पंचम गइ णेइ) यही धर्म पंचम गति मोक्ष में ले जाता है। राग-द्वेष त्यागकर आत्मस्थ होना धर्म है। राय-रोस बे परिहरिवि जो अप्पाणि वसेइ। सो धम्मु वि जिण-उत्तियउ जो पंचक गइ णेइ॥४८॥ क्या कहते हैं? बहुत संक्षिप्त शब्दों में संक्षिप्त कहते हैं। जो कोई आत्मा, पुण्य और पाप के, राग और द्वेष के भाव को छोड़कर.... शुभ और अशुभभाव जो राग-द्वेषमय है, वह बन्ध का कारण है, उसे छोड़कर.... 'अप्पाणि वसेइ' जो आत्मा में बसता है। देखो! पुण्य और पाप के भाव में बसना, वह आत्मा में बसना नहीं है – ऐसा कहते हैं । इस शुभभाव में बसना भी आत्मा का बसना नहीं है – ऐसा कहते हैं। बहुत संक्षिप्त भाषा में (कहते हैं)। राग-द्वेष के विकल्प छोड़कर, शुभ-अशुभ की - राग की वृत्तियाँ छोड़कर 'अप्पाणि वसेइ' 'अप्पाणि' यह त्रिकाली आत्मा है, बसना वह अन्दर स्थिरता है। आत्मा में विश्राम कर। आहा...हा...! भगवान चैतन्यधाम अन्दर विराजमान है, पूर्णानन्द का नाथ भगवान आत्मा शाश्वत् विराजमान है आत्मा; उसमें बस, उसमें निवास कर, उसमें स्थिर हो - यह मुक्ति का उपाय है । यह योगसार है – ऐसा कहना है न !'वसेइ'
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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