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गाथा-४७
पहचान शुद्ध श्रद्धा-ज्ञान और शान्ति का अनुभव, यह धर्म की पहचान है। दया, दान, व्रत के परिणाम तो विकार हैं, वह धर्मी की पहचान नहीं है। अद्भुत, कठिन बात।
निश्चय धर्म के बिना साररहित है, चावल रहित तुष के समान है। जैसे चावल न हो और अकेला छिलका हो, छिलका कहते हैं न? तुष.... तुष। इसी प्रकार आत्मा के शुद्ध श्रद्धा, ज्ञान, अनुभव के बिना यह बाह्य क्रिया महाव्रत के परिणाम आदि सब व्यर्थ, व्यर्थ है। पुण्यबन्ध कराकर संसार का भ्रमण बढ़ानेवाले हैं। सबकी बात (की है)। वे कहें, संसार बढ़ाये? संसार बढ़ाये? फिर टीका (आलोचना करे)। आत्मा शुद्धचैतन्य प्रभु निर्विकल्प आनन्दकन्द का अनुभव सम्यग्दर्शन-ज्ञान बिना जितनी क्रिया - पंच महाव्रत आदि की दया, दान, भक्ति, पूजा की करे, वह सब पुण्यबन्ध की करनेवाली है। संसार भ्रमण बढ़ानेवाली है। उसमें तो संसार बढ़ता है – ऐसा यहाँ तो कहते हैं। कहो, मोहनभाई ! जितना अंश वीतराग है, उतना धर्म है – ऐसा कहना है। समझ में आया?
हे आत्मा! तू इस पाप का बंध करनेवाली कल्पना को छोड़, ऐसा अहंकार न कर की मैं शूरवीर हूँ। अन्तिम बोल – दृष्टान्त है। बुद्धिमान हूँ, चतुर हूँ, सबसे अधिक लक्ष्मीवाला हूँ.... छोड़ दे यह बात। भगवान आत्मा निराला ज्ञानानन्द है, उसे ऐसा बाहर का अभिमान किसका? बड़ा पैसेवाला हूँ, मुझे दुनिया करोड़पति मानती है, मैं गुणवान हूँ, समर्थ हूँ, अथवा सर्व मनुष्यों में अग्र हूँ, मुनिराज हूँ.... निरन्तर निर्मल आत्मतत्त्व का ही ध्यान कर, यह अहंकार छोड़ दे। भगवान आत्मा शुद्ध
चैतन्य स्वभावी वस्तु का निरन्तर अनुभव कर तो मोक्ष की लक्ष्मी मिलेगी। बाह्य क्रियाकाण्ड में कुछ मिले ऐसा नहीं है। अद्भुत कठिन परन्तु.... लो! यह शीतलप्रसाद तो स्पष्ट लिखते हैं।
मुमुक्षु – व्यवहार सिद्ध करके व्यवहार को उड़ाते हैं।
उत्तर - व्यवहार सिद्ध नहीं किया? व्यवहार है, किसने इंकार किया? व्यवहार से लाभ होता है, इससे इंकार करते हैं, व्यवहार से लाभ का इंकार करते हैं । यह ४७ वीं गाथा (पूरी हुई)।