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________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) ३३५ उत्तर - अनादि से ऐसा का ऐसा चला आता है। धर्म तो आत्मा का निर्विकल्प अनुभव करना, वह धर्म है। भगवान आत्मा आनन्द और ज्ञान का अन्दर में वेदन करे. उसका नाम धर्म है। उस धर्म के बिना बाहर के शास्त्रों के अध्ययन में विद्वत्ता धारण कर अभिमान करे (तो वह) मिथ्या है। इसी प्रकार कोई बहुत शास्त्रों का संग्रह करे.... भरो पुस्तकें पाँच-दस लाख बड़ी... समझे न? जैसे दाने का संग्रह करते हैं न? वैसे ही यह पुस्तकों का संग्रह करे। कहो, समझ में आया? पिच्छी रखकर साधु या क्षुल्लक श्रावक हो जाये.... लो! बहुत पुस्तक रखे, पिच्छी रखे... समझ में आया? केशलोंच करे, एकान्त मठ में या गुफा में बैठे परन्तु शुद्ध आत्मा की भावना न करे.... अन्तर आनन्दस्वरूप भगवान की अन्तर्दृष्टि, ज्ञान और अनुभव न करे। बाह्य मुनि या श्रावक के वेश को ही धर्म मान ले तो ऐसा मानना मिथ्या है। शरीर के आश्रय से जो वेश होता है, वह केवल निमित्त है, व्यवहार है, धर्म नहीं। यह व्यवहार, धर्म नहीं है। समझ में आया? व्यवहार क्रियाकाण्ड से या चारित्र से रागभाव-शुभभाव होने से पुण्यबन्ध का हेतु है.... लो ! समझ में आया? वह संवर और निर्जरा का हेतु नहीं.... मुमुक्षु जीव को इस बात की दृढ़ श्रद्धा रखना चाहिए कि भाव की शुद्धि भी मुनि अथवा श्रावकधर्म है.... धर्मात्मा को यह दृढ़ता से श्रद्धा में रखना चाहिए कि अन्दर में आत्मा के पुण्य-पाप के भाव बिना आत्मा की शुद्धि की भावना होना, और भाव होना, वही मुनि और श्रावकधर्म है। समझ में आया? अशुभभाव से बचने के लिए शुभभाव आता है। समझ में आया? कोई जीव चाहे जितना ऊँचा बाह्य चारित्र पाले और किसी को चाहे जितने शास्त्रों का ज्ञान हो तो भी निश्चयधर्म के बिना साररहित है.... कहो, रतनलालजी! व्यर्थ है, एक के बिना की शून्य है, कोरा कागज । हैं ? मुमुक्षु – धर्मी की पहचान तो हो.... उत्तर – धूल में धर्मी की पहचान नहीं होती। धर्म की पहचान, धर्मी आत्मा की
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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