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गाथा-४७
में चले गये, कुछ सूझे नहीं, धर्म की लगन अवश्य; करे ऐसी मेहनत और समय आवे तब बोये नहीं - ऐसी वहाँ उनकी छाप थी।
मुमुक्षु – घासफूस तो हुआ। उत्तर – घासफूस तो मुफ्त भी होगा। घासफूस होने में क्या है? मुमुक्षु - दृष्टान्त भी ठीक मिल गया।
उत्तर – नहीं, नहीं, दृष्टान्त है यह। उसे भी ऐसी लाईन.... ऐसा फिर उसे भाव अवश्य, दीक्षा लेना, दीक्षा लेना – ऐसा अवश्य । करे तब करे और फिर बैठ जाये, कुछ सूझ नहीं पड़े ऐसे खेत साफ करे परन्तु बीज बोये बिना उगे कहाँ से? बीज बिना वृक्ष का अंकुर फूटता होगा?
इसी तरह भगवान आत्मा अखण्डानन्द प्रभु का अनुभव किये बिना मोक्ष का फल कहीं पकता नहीं है। बाहर का क्रियाकाण्ड करके मर जाये – दया पालो, व्रत पाले, भक्ति करे, पूजा करे, और लाखों-करोड़ों का दान करे.... समझ में आया? लाखों-करोड़ों का दान करे और लाख-करोड़ मन्दिर बनाये.... हराम... धर्म हो उसमें तो। शुभभाव हो, शुभभाव-पुण्य हो। समझ में आया?
यहाँ तो कहते हैं न, देखो न ! सब कठोर भाषा ली है। (यहाँ) कहा है कि ग्रन्थ पढ़ने से ही धर्म नहीं होता, ग्रन्थ का पठन पाठन इसलिए उपयोगी है कि जगत् के पदार्थ.... जानकर फिर आत्मा का अनुभव करना। समझ में आया? यदि शुद्धात्मा का लाभ न करे, केवल शास्त्रों का अभ्यासी महान विद्वान और वक्ता होकर धर्मात्मा होने का अभिमान करे.... शुद्धात्मा भगवान परमानन्द की मूर्ति का अनुभव न हो, सम्यग्दर्शन नहीं, उसका अनुभव नहीं, केवल शास्त्रों का पाठी है.... अकेला शास्त्र पढ़े, दुनिया में महान विद्वान कहलाये, वक्ता – फिर पाँच-पाँच लाख लोगों में भाषण दे... धर्मात्मा होने का अभिमान करे तो वह सब मिथ्या है। वह कोई धर्मात्मापना नहीं है। आहा...हा...! है?
मुमुक्षु – ऐसा तो अनादि से चला आता है।