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________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) ३३३ भान करके चाहे तो वन में रहे या चाहे तो घर में रहे.... समझ में आया? आत्मा के भान बिना, कहते हैं किसी मठ में रहने से धर्म नहीं होता। ऐसा केशलोंच करने से भी धर्म नहीं होता। 'मत्था-लुचियइँ' सिर का लोंच करते हैं न, छह-छह महीने में ? उससे कहीं धर्म नहीं है। लोगों को ऐसा हो जाता है.... आहा...हा...! वह तो जड़ की क्रिया है; वह कहीं आत्मा की क्रिया है ही नहीं। उसमें कुछ राग मन्द होवे और सहनशीलता करे तो वह पुण्यभाव है। अन्दर आत्मा के आनन्द के भान बिना ऐसा सिर मुंडाने पर भी कहीं धर्म-वर्म है नहीं। कहो, समझ में आया? आहा...हा...! जिस धर्म से जन्म, जरा, मरण का दुःख मिटे, कर्मों का क्षय हो, यह जीव स्वाभाविक दशा को प्राप्त करके अजर-अमर हो जाये, वह धर्म.... कहलाता है। वह आत्मा का निजस्वभाव है। धर्म है, लो! वही निश्चय रत्नत्रयमय धर्म, स्वानुभव अथवा शद्धोपयोग की भमिका को प्राप्त करेगा। लो. अपनी श्रद्धा करेगा. अपना ज्ञान करेगा, एकाग्रता करेगा, वह सच्चे शुद्धोपयोग की प्राप्ति करेगा। जो कोई उस तत्त्व को भलीभाँति न समझे.... भगवान आत्मा ज्ञातादृष्टा, जगत् का साक्षी, जगत् की चक्षु, दुनिया के दृश्य को देखनेवाला, यह ज्ञेय का ज्ञाता – ऐसा भगवान आत्मा ज्ञातादृष्टा अनुभव में न ले और इसके अतिरिक्त बाह्य क्रियामात्र व्यवहार ही करे और माने कि मैं धर्म का साधन कर रहा हूँ.... तो वह धर्म साधन है नहीं। कहो, समझ में आया? मुमुक्षु - क्षेत्र विशुद्धि.... उत्तर - क्षेत्र विशुद्धि भी नहीं। क्षेत्र विशुद्धि किसकी? (बीज) बोये तब क्षेत्र विशुद्धि कहलाये न? बोये बिना (क्या)? 'खस' में रहते, नहीं वे? कुम्हार नहीं? गुजर गये। रायचन्द्रजी! बहुत इतने-इतने तक खेत को साफ करते (परन्तु) बोये नहीं, तो बोये बिना उगता होगा? क्या कहा उसका नाम? रायचन्द्रजी ! अपने थे न यहाँ? जीवनलालजी के साथ, वे बाद में साधु हुए थे। वे खेत में बहुत साफ करते थे। इतना-इतना खोद कर अन्दर से बौर और काँटे निकालते । बोने का समय आवे तब बोते नहीं। वे फिर ऐसी लाईन
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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