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गाथा-४७
बाह्य क्रिया में धर्म नहीं है धम्मु ण पढियइँ होइ धम्मु ण पोत्था-पिच्छिय। धम्मुण मढिय-पएसि धम्मु ण मत्था-लुचियइँ॥४७॥
शास्त्र पढ़े मठ में रहे, शिर के लुंचे केश।
धरे वेश मुनि जनन का, धर्म न पाये लेश॥ अन्वयार्थ – ( पढियइँ धम्मु ण होइ) शास्त्रों के पढ़ने मात्र से धर्म नहीं हो जाता (पोत्थापिच्छियइँधम्मु ण) पुस्तक व पीछी रखनेमात्र से धर्म नहीं होता ( मढिय -पएसि धम्मु ण) किसी मठ में रहने से धर्म नहीं होता ( मत्था-लुचियइँ धम्मु ण) केशलोंच करने से धर्म नहीं होता।
४७ । बाह्य क्रिया में धर्म नहीं है। ४७ श्लोक
धम्मु ण पढियइँ होइ धम्मुण पोत्था-पिच्छियइँ।
धम्मु ण मढिय-पएसि धम्मु ण मत्था-लुचिय॥४७॥
शास्त्र पढ़नेमात्र से धर्म नहीं हो जाता। शास्त्र पढ़-पढ़कर बढ़ा पण्डित हुआ हो, इसलिए धर्म हो जाये – ऐसा नहीं है। आहा...हा...! समझ में आया? 'पोत्था-पिच्छिय' यह पुस्तक और पिच्छी रखनेमात्र से धर्म नहीं हो जाता। नग्न मुनि हो गया और पिच्छी रखी और एक पुस्तक रखी, वह कहीं धर्म नहीं है। देखो! यह योगीन्द्रदेव स्वयं दिगम्बर मुनि हैं, जंगलवासी आचार्य हैं, आत्मध्यान में मस्त हैं, वे कहते हैं कि तेरी मोरपिच्छी या पुस्तक से कहीं धर्म नहीं होता है।
किसी मठ में रहने से धर्म नहीं होता। एकान्त में जाकर वन में रहे, किसी मठ में रहे.... वन में और मठ में रहे उसमें क्या हुआ? बहुत से चकवे उसमें रहते हैं। समझ में आया? हैं ? मठ और वन सब एक ही है, उसमें क्या? धर्म का पता नहीं, वहाँ मठ में रहे या वन में रहे या घर में रहे... समझ में आया? और आत्मा ज्ञानानन्दस्वरूप शुद्ध का