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________________ योगसार प्रवचन ( भाग - १ ) करने से स्वाधीनरूप से परमानन्द का लाभ होता है । आहा... हा... ! परन्तु इसे सूझ नहीं पड़ती। यह भगवान स्वयं समीप है। समझ में आया ? ३३१ और शुद्धोपयोग ही धर्म है। नीचे शब्द है, क्या कहा ? आत्मा में हिंसा, झूठ, चोरी, विषय-भोग वासना, काम, क्रोध, ये पापपरिणाम वह अशुभभाव है, दया, दान, व्रत, भक्ति, तप, जप आदि शुभभाव हैं, पुण्यभाव है, वह धर्म नहीं है; धर्म को आत्मा इन शुभ और अशुभभाव से हटकर अन्तर आत्मा के आनन्द में शुद्धभाव प्रगट करना, पुण्य-पाप के भावरहित - ऐसे शुद्धभाव को भगवान, धर्म कहते हैं । आहा....हा.... ! समझ में आया ? कषाय के उदयसहित शुभोपयोग धर्म नहीं है । देखो ! इसमें तो बराबर ठीक लगता है । निमित्त का आवे तब जरा दृष्टिकोण बदल जाता है। कषाय का उदय, शुभभाव, दया, दान, व्रत, भक्ति, तप, जप का विकल्प उठता है, वह तो राग है, वह धर्म नहीं है । आहा...हा... ! वह तो शुभ उपयोग है, पुण्य-बन्ध का कारण है। शुद्ध उपयोग – रागरहित आत्मा की श्रद्धा, ज्ञान, शान्ति, आत्मा का शुद्ध व्यापार, उसे यहाँ शुद्धयोग कहा जाता है, उसे यहाँ धर्म कहा जाता है। समझ में आया ? फिर (लिया है कि ) अशुभ से बचने को शुभ करना पड़ता है। परन्तु उसे बन्ध का कारण मानना चाहिए। मोक्ष का उपाय एकमात्र स्वानुभवरूप शुद्धोपयोग है। उसके बिना कोई मोक्ष का उपाय एक भी नहीं है । कहो, समझ में आया ? ‘वृहद् सामायिक' का दृष्टान्त दिया है। अब तू शुद्ध आत्मज्ञान प्राप्त करके उन विषय-कषायों का पूर्णरूप से नाश कर डाल, विद्वान् लोग अवसर मिलने पर शत्रुओं को मारे बिना छोड़ते नहीं हैं। हे आत्मा ! तुझे अभी अवसर मनुष्य देह में अवसर मिला है । आत्मा का भान करने का अवसर आया है। यह विकाररूपी शत्रु को नाश करने का तेरा काल है । आहा... हा... ! अरे ! चौरासी के अवतार तुझे भटकते हुए मनुष्यपना, उसमें इन विकाररूपी शत्रुओं को नाश करने का तेरा अवसर है और विद्वान् अवसर को पहचान कर शत्रु को मार डालते हैं । अभी अपना अवसर है। समझ में आया ? फिर धर्म रसायन की बात की है। ठीक !
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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