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________________ ३३० गाथा-४६ करता। आत्मा करे क्या? अपनी सत्ता में विकार करे और या आत्मा का अनुभव करके मुक्ति करे। बाकी पर का अणुमात्र भी नहीं बदल सकता है। आहा...हा...! बड़ा मानधाता... वह नहीं था एक बड़ा? रामो... रामो... कहता था न? 'गामा!' ऐसा उसका बड़ा शरीर लट्ठ जैसा, पूरे हिन्दुस्तान में क्या पूरे देश में बड़ा योद्धा कहलाता था, वह मरते समय ऐ...ऐ... (हो गया)। मक्खी बैठे तो हाथ (उठा नहीं सकता), वह तो जड़ है। जड़ में आत्मा क्या कर सकता है? आत्मा या दीनता करे और या उग्रता पुरुषार्थ करे, उलटा या सुलटा । समझ में आया? मुमुक्षु - परन्तु शरीर अच्छा होवे तो.... उत्तर - धूल में अच्छा शरीर, कहना किसे शरीर? यह तो मिट्टी है। शरीर तो मिट्टी है। यह निरोगता होवे तो उसकी दशा, रोग होवे तो उसकी दशा... आत्मा को उसके कारण कुछ रुकता है, इस बात में जरा भी दम नहीं है। शरीर में रोग हो, वह जड़ में है, उसमें आत्मा को क्या आया? समझ में आया? यहाँ तो 'आत्मभ्रान्तिसम रोग नहीं...' आत्मा शुद्ध आनन्दकन्द है – ऐसा न मानकर, उसे रागवाला और शरीरवाला और परवाला मानना – ऐसा एक महारोग मिथ्यात्व का इसे लगा है। आहा...हा...! आत्मभ्रान्ति सम रोग नहीं, सद्गुरु वैद्य सुजान' इसे क्या रोग है ? यह बतलानेवाले ज्ञानी हैं परन्तु सुजान, हाँ! भलीभाँति जाननेवाले, सम्यक्ज्ञानी की बात है; और उनकी आज्ञा है कि इस प्रकार नहीं मानना – कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र को नहीं मानना यह पथ्य है । औषध विचार ध्यान' और उसका औषध विचार और ध्यान है। कहो! विचार और ध्यान उसके औषध हैं। कहो, समझ में आया? देखो! जहाँ अपने आत्मा के ही शुद्ध स्वभाव का श्रद्धान है, ज्ञान है, और उसमें ही स्थिरता है, उसे ही आत्मदर्शन कहते हैं। उसे आत्मदर्शन कहते हैं। भगवान आत्मा परसन्मुख की उपयोग दशा को बदलकर और अपने स्वभाव के अन्तर में उपयोगदशा को जोड़े.... योगसार है न? उसे सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र कहते हैं। वही एक धर्म रसायन है। लो, मांगीरामजी! कितना गुजराती सीखकर आये? समझ में आया? जवाब दिया.... कहो समझ में आया? एक धर्म रसायन जो अमृतरस का पान है। जिसका पान
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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