________________
योगसार प्रवचन (भाग-१)
३२७
लोगों ने दूसरे औषध ढूंढ़े कि भई ! इस रोग पर यह औषध.... परन्तु किसी ने जन्म-मरण की औषधि ढूँढ़ी? है?
मुमुक्षु - वीतरागदेव ने दिया।
उत्तर - वीतराग सर्वज्ञदेव भी कहते हैं, वही कहते हैं। समस्त रोगों की दवा (शोधकर) इस रोग पर यह दवा और इस रोग पर यह दवा.... परन्तु इस चौरासी लाख के जन्म-मरण, जरा में भटकता है, उसकी दवा किसी ने खोजी? वह तो सर्वज्ञ परमेश्वर वीतरागदेव तीन काल-तीन लोक के ज्ञाता, वीतराग कहते हैं कि उसके लिए धर्म रसायन औषध है। धर्मरूपी उत्तम रसायन है। वह धर्म किसे कहना? समझ में आया? देखो! नीचे है।
रत्नत्रय के भाव से ही नये कर्मों का संवर होता है और पुराने कर्मों की अविपाक निर्जरा होती है। वह धर्म रत्नत्रयस्वरूप है। देह की क्रिया, धर्म नहीं है, आत्मा में कोई दया, दान, व्रत का भाव हो, वह भी धर्म नहीं है। समझ में आया? आत्मा शुद्ध
आनन्दकन्द है, उसका अन्तर में अनुभव करना, आत्मा पवित्र अनन्त गुण का धाम आत्मा है, उसमें विकार जितना दिखता है, वह आत्मा नहीं – ऐसे आत्मा में अन्तर्मुख होकर आनन्द की शान्ति का अनुभव करना, वही एक जन्म, जरा, मरण को मिटाने की औषध है। कहो, समझ में आया?
रत्नत्रय निश्चय से एक आत्मिक शुद्धभाव है.... रत्नत्रय (है वह) मोक्ष प्राप्त करने के लिए तीन रत्न हैं। यह तीन रत्न अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। यह सम्यग्दर्शन अर्थात् आत्मा पूर्णानन्द है, उसमें अन्तर्मुख होकर निर्विकल्प श्रद्धा होने को सम्यग्दर्शन कहते हैं। राग के अवलम्बन बिना चैतन्य ब्रह्म भगवान आत्मा की अन्तर अभेद निर्विकल्प प्रतीति होने को सम्यग्दर्शनरूपी जन्म, जरा, मरण को मिटाने का औषध कहते हैं। उस आत्मा का ज्ञान कि यह परमानन्दमूर्ति आत्मा है – ऐसे आत्मा का ज्ञान; आत्मा का ज्ञान दूसरी चीज का नहीं - वह जन्म, जरा, मरण रोग को मिटाने का औषध एक महा उपाय है और फिर स्वरूप में स्थिर होना। जो आत्मा शद्ध आनन्दकन्द, जो श्रद्धा -ज्ञान में लिया हो, उसमें अन्तर में स्थिर होना, रमना, जमना,