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गाथा-४६
दुनिया के संयोग का दुःख - ऐसे दुःखों से यदि तू भयभीत है, चौरासी के अवतार से (भयभीत है)। तो धम्म करेहि - धर्म कर। यह धर्म कर अर्थात् धर्म क्या? यह आता है अन्दर, थोड़ा अर्थ किया है। धर्म उसे ही कहते हैं कि जो संसार के दुःखों से निकालकर मोक्ष के परमपद में धारण करे। वह धर्म, रत्नत्रयस्वरूप है। सूक्ष्म बात है।
भगवान आत्मा सच्चिदानन्द आनन्द और ज्ञानस्वरूप है। ऐसे आत्मा की अन्तर में सम्यक्श्रद्धा, ज्ञान और रमणता (होवे), उसे यहाँ धर्म कहा गया है। समझ में आया? कर धर्मोषधि पान – ऐसा है न? तू धर्मरसायन का पान कर। धर्मरूपी औषधि भी रसायन अर्थात् उत्तम औषधि। जिससे तू अजर-अमर हो जाएगा। जिससे तू अजर और अमर हो जाएगा। जरा और मरणरहित हो जाएगा.... परन्तु धर्म अर्थात् क्या?
पहले ऐसा कहा है कि मनुष्य को यह जन्म-जरा-मरण के दुःख पहले भासित होना चाहिए। समझ में आया? जरा व मरण के भयानक दुःख हैं। जब जरा आ जाती है, शरीर शिथिल हो जाता है, अपने शरीर की सेवा स्वयं करने को असमर्थ हो जाता है, इन्द्रियों की शक्ति घट जाती है, आँख की ज्योति कम हो जाती है। इत्यादि।
मुमुक्षु - सब अनुकूल हो तब?
उत्तर - अनुकूल नहीं, धूल में भी अनुकूल नहीं। अनुकूल कब था? बाहर के इन्द्रिय आदि मेरे, और पद आदि अनुकूल.... यहाँ तो कहते हैं कि प्रतिकूल हो या अनुकूल, उस बाह्य सामग्री की रुचि छोड़ दे। समझ में आया यहाँ?
यहाँ तो तुझे चार गति में भटकने का भय लगा होवे तो धर्म-औषधि का पान कर - ऐसा कहते हैं । जैसे, बाहर के रोग को मिटाने को औषध है; वैसे ही जन्म-जरा-मरण के रोग को मिटाने के लिए आत्मा में औषध है। आत्मा के पास है। आत्मा सच्चिदानन्दस्वरूप अनाकुल आनन्दस्वरूप है, उसका अन्तर में अनुभव करना। आत्मा के आनन्दस्वरूप का अनुसरण करके अन्तर में उसकी श्रद्धा, ज्ञान और रमणतारूप अनुभव करना, यह जन्म -जरा-मरण का नाश करने की औषधि उपाय है। यह एक औषधि है। समझ में आया?