SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 328
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२८ आनन्द का विशेष अनुभव करना इसका नाम चारित्र कहते हैं । कहो, समझ में आया इसमें ? यह धर्म - औषध पान शुद्धभाव है। - गाथा- ४६ आत्मतल्लीनता है..... अनादि की पुण्य-पाप के विकारीभाव की तल्लीनता है वह जन्म, मरण के रोग को उत्पन्न करने का कारण है। आत्मा में होनेवाले परलक्ष्यी शुभाशुभभाव - दया, दान, व्रत, भक्ति आदि शुभ (भाव) और हिंसा, झूठ आदि अशुभ (भाव) में लीनता, वह जन्म, जरा, मरण को बढ़ाने का वह रोग है । जन्म, जरा, मरण को मिटाने की औषध, उस चैतन्य भगवान आत्मा परमानन्द की मूर्ति में लीनता, उसमें एकाग्रता (करना है)। पहले आत्मा को पहचाने, पहचानकर श्रद्धा करे, जाने और फिर उसमें लीनता करे, वह लीनता आत्मिकभाव है। आत्मलीनता है, वह स्वसंवेदन है.... समझ में आया ? लो ! गुरु से मिले - ऐसा नहीं यह कहते हैं । स्व-संवेदन हुआ, तब गुरु से मिला ऐसा कहने में आया ? स्व-संवेदन आत्मा ज्ञानानन्द प्रभु आत्मा है, अनादि-अनन्त सचिदानन्दस्वरूप है; यह देह तो मिट्टी - जड़ है, वाणी जड़ है, कर्म जड़ है, पुण्य-पाप के भाव होते हैं वह विकार, दोष और दुःख है। इनसे रहित आत्मा का स्वभाव, उसका अपना स्वसंवेदन (अर्थात्) ज्ञान, ज्ञान से ज्ञान को जाने, ज्ञान, ज्ञान से आत्मा को जाने; ज्ञान, ज्ञान से आत्मा का वेदन करे; ज्ञान, ज्ञान से आत्मा में स्थिर हो, वह स्वसंवेदन एक ही जन्म, जरा, मरण को मिटाने का उपाय रसायन है। कहो, समझ में आया ? स्वानुभव है .... अनुभव है। भगवान आत्मा अनादि का पुण्य और पाप, शुभाशुभराग का अनुभव करता है, वह अनुभव तो पर विकार का (अनुभव है) । वह तो चार गति भटकने का मूल है। भगवान आत्मा का जो अनुभव, वही मोक्ष का कारण है और रोग जन्म, जरा, मरण को मिटाने का एक रसायन है। रसायन अर्थात् उत्तम औषधि । कहो समझ में आया ? डॉक्टर और वैद्य नहीं देते ? उत्तम रसायन या भस्म या.... देते हैं न कुछ ? पुडिया, हैं ? वह ऊँची - कीमती होती है। यह भी ऊँची कीमती रसायन है, कहते हैं । औषध में भी ऊँची (औषध को ) रसायन कहते हैं। के मुमुक्षु - कीमती में मात्रा अधिक रहती होगी। -
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy