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गाथा-४५
__ अज्ञानी, इस गंगा नदी में नहाना और इसमें स्नान करना और इसमें यह करना, तीर्थ में भ्रमना और भटकना.... जो वास्तविक व्यवहार तीर्थ भी सत्य नहीं है – ऐसे तीर्थ में भ्रमने से आत्मा का कल्याण होगा - ऐसा माननेवाला मूर्ख है। ऐसा कहा। फिर यहाँ कहा कि व्यवहार तीर्थ देव, देवालय, मन्दिर आदि जैन शासन में है, गिरनार की यात्रा इत्यादि इनसे निश्चय प्राप्त होगा ऐसा कहनेवाले अपने अन्दर में भूले हैं। कहो, इसमें समझ में आया? आहा...हा...! यह वहाँ कहाँ भगवान थे? गिरनार में नेमिनाथ भगवान हैं? नेमिनाथ भगवान तो मोक्ष पधारे हैं। वहाँ नेमिनाथ भगवान को देखने जाये तो मूर्ख है। यह तो उनकी स्थापना है। उनके स्मरण में ऐसे 'नेमिनाथ' भगवान थे, ऐसे थे। ओ...हो...! वासदेव और बलदेव. भगवान नेमिनाथ जब विराजमान थे. तब वन्दन करने आते थे। साक्षात् भगवान विराजते । बलदेव-वासुदेव जिनके भक्त थे – ऐसा स्मरण में निमित्त है, शुभभाव है, भक्ति का भाव तो मुनियों को भी होता है। मुनियों को होता है। कुन्दकुन्दाचार्यदेव वन्दन करने गये थे या नहीं? गये थे, होता है, परन्तु कोई ऐसा मान ले कि वहाँ से – ऐसे से ऐसा अन्दर में जाया जाएगा और मुक्ति होगी, इस बात में सार नहीं है।
(श्रोता : प्रमाण वचन गुरुदेव!)
कौन मुनिराज को नहीं मानेगा? प्रश्न - आप मुनि को मानते हैं?
उत्तर - भाई ! आत्मज्ञानयुक्त सच्चे भावमुनिपने को कौन नहीं मानेगा? वे तो पञ्च परमेष्ठी में साधु परमेष्ठी हैं, उनके तो हम दासानुदास हैं। कुछ लोग कहते हैं कि आप मुनि को नहीं मानते; परन्तु भाई! तुम्हें मनवाने का क्या काम है ? अन्तर में सच्चा मुनिपना हो और दूसरे उसे न मानें तो क्या मुनिपना नष्ट हो जाता है ? और यदि अन्तर में सच्चा मुनिपना न हो और दूसरे मुनिपना मानें तो क्या सच्चा मुनिपना आ जाता है ? मुनिपना मनवाने आदि के विकल्प तो कहीं दूर रह गये, परन्तु मुनि को तो व्रतादि के शुभविकल्प आयें, वह भी कर्तव्य नहीं है, सहज है।
- पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी