________________
योगसार प्रवचन (भाग-१)
३२३
में विराजमान परमात्मदेव को ही आप देखता है, आपको मनुष्यरूप नहीं देखता। अपने को मनुष्यरूप तो नहीं देखता परन्तु परस्वरूप जो परमात्मा, उसरूप आत्मा नहीं देखता। अपने स्वरूप से अखण्ड ज्ञायकमूर्ति है – ऐसा देखता है, उसे सच्चा ज्ञान और सत्य ज्ञान कहा जाता है। लो!
पुरुषार्थसिद्धियुपाय में यह दृष्टान्त दिया है न? निश्चयनय यथार्थ वस्तु को कहता है। व्यवहारनय वस्तु को यथार्थ नहीं कहता। देखो, निश्चयनय वास्तविक तत्त्व का सत्यस्वरूप कहता है, व्यवहारनय उस सत्यस्वरूप (को नहीं कहता) वह तो उपचार से कथन करता है। सर्वज्ञदेव निश्चय को भूतार्थ और व्यवहार को अभूतार्थ कहते हैं। सर्वज्ञ परमेश्वर व्यवहार को असत्यार्थ और निश्चय को सत्यार्थ कहते हैं। बहुधा सर्व ही संसारी जीव इस भूतार्थ निश्चय के ज्ञान से दूर हैं। भगवान आत्मा स्वस्वरूप से प्राप्त होता है, ऐसे निश्चय ज्ञान से बहुधा प्राणी दूर हैं। बहुभाग व्यवहार को निमित्त को लगा है। भगवान आत्मा....! व्यवहार, निमित्त है अवश्य, बहुभाग उसी में लगा है कि इससे निश्चय (प्राप्त होगा)। असत्य से सत्य प्राप्त होगा। आत्मा के शुद्धस्वभाव की अपेक्षा से वह सब इसमें नहीं है, इसलिए असत्य है। व्यवहार है, वह उपचार है। लोग - बहुत जीव वहाँ लगे हुए हैं। भूतार्थ भगवान आत्मा अन्दर में अखण्डानन्द प्रभु को देखने का निश्चय का ज्ञान करनेवाले थोड़े हैं। समझ में आया?
जिस बालक ने सिंह नहीं जाना है, वह बिलाव को ही सिंह जान लेता है, बिल्ली.... बिल्ली.... क्योंकि बिलाव देखकर उसे सिंह कहा गया था, उसी तरह जो निश्चयतत्त्व को नहीं जानता है, वह व्यवहार ही को निश्चय मान लेता है। लो! निश्चय समझे बिना व्यवहार को निश्चय मान ले वह तो मूढ़ है। दो तत्त्व अलग प्रकार के हैं । व्यवहार, वह उपचार और व्यवहार है और यह तो निश्चय और यथार्थ है । व्यवहार ही को निश्चय मान लेता है। वह कभी भी सत्य को नहीं पाता है। लो! समझ में आया? इतनी गाथायें तो मन्दिर की हुई। ४२ से शुरु हुई थी न? हैं ? ४२ से यहाँ तक कहा। ४१ में दूसरा था न? ४१ में कुतीर्थ का था... ४१ में कुतीर्थ में भ्रमने से मुक्ति होती है - ऐसा मानता है और यह अपना भगवान सत्य है, वहाँ जाने से मुक्ति होती है - ऐसा मानता है। समझ में आया?